सितम-गर्मियों का
गाजरों में रस बहुत कम हो गया है,
संतरे भी सूखने अब लग गए है
कल तलक थे सख्त कच्ची केरियों से ,
डालियों पर आम पकने लग गए है
अब गरम चाय की चुस्की ना सुहाती ,
ठंडी लस्सी दही की मन भा रही है
कभी चिकनी हुआ करती थी कमल सी,
वो त्वचा भी आजकल कुम्हला रही है
इस तरह हालत बदले गर्मियों में,
गर्म मौसम मगर, हम ठन्डे पड़े है
पेड़ से पत्ते ज्यों गिरते पतझड़ों में ,
उस तरह अरमान इस दिल के झड़े है
घटे कपडे ,बदन खुल्ला देख कर के ,
भावनाएं दिल की तो भड़का करे है
सर्दियोंमे दुबकते थे पास आकर ,
गर्मियों में दूर ,वो रहते परे है
नींद यों भी ठीक से आती नहीं है ,
उस पे मच्छर भिनभिनाते,काटते है
क्या बताएं गर्मियों की रात कैसे,
बदल कर के करवटें ,हम काटते है
तपन गर्मी की जलाती है बदन को ,
पसीने से चिपचिपा तन हो गया है
इस तरह ढाये सितम है गर्मियों ने ,
अब मज़ा सारा मिलन का खो गया है
मदनमोहन बाहेती'घोटू'
गाजरों में रस बहुत कम हो गया है,
संतरे भी सूखने अब लग गए है
कल तलक थे सख्त कच्ची केरियों से ,
डालियों पर आम पकने लग गए है
अब गरम चाय की चुस्की ना सुहाती ,
ठंडी लस्सी दही की मन भा रही है
कभी चिकनी हुआ करती थी कमल सी,
वो त्वचा भी आजकल कुम्हला रही है
इस तरह हालत बदले गर्मियों में,
गर्म मौसम मगर, हम ठन्डे पड़े है
पेड़ से पत्ते ज्यों गिरते पतझड़ों में ,
उस तरह अरमान इस दिल के झड़े है
घटे कपडे ,बदन खुल्ला देख कर के ,
भावनाएं दिल की तो भड़का करे है
सर्दियोंमे दुबकते थे पास आकर ,
गर्मियों में दूर ,वो रहते परे है
नींद यों भी ठीक से आती नहीं है ,
उस पे मच्छर भिनभिनाते,काटते है
क्या बताएं गर्मियों की रात कैसे,
बदल कर के करवटें ,हम काटते है
तपन गर्मी की जलाती है बदन को ,
पसीने से चिपचिपा तन हो गया है
इस तरह ढाये सितम है गर्मियों ने ,
अब मज़ा सारा मिलन का खो गया है
मदनमोहन बाहेती'घोटू'