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रविवार, 1 दिसंबर 2013

गाँव का घर

         गाँव का घर

जिसमे जीवन हँसता गाता था,जिसमे परिवार बढ़ा है
बसा हुआ माँ की यादों में,वह घर अब वीरान पड़ा  है
बरसों पूर्व खरीदा इसको ,बाबूजी ने बड़े जतन  से
अपना घर था,सब ही खुश थे,कच्चे,लिपे पुते आँगन से
एक एक रुपया जोड़ा और धीरे धीरे इसे सुधारा
आँगन में पत्थर लगवाए,कंक्रीट से छत को ढाला
हम सब भाई और बहनो ने,इस घर में ही जनम लिया था
पढ़े,लिखे और बड़े हुए फिर,इस घर से ही ब्याह किया था
बहने सब जा बसी सासरे,भाई निकल गए सर्विस में
बूढी माता और पिताजी ,केवल बचे रह गए इस में
वो खुश थे पर जब से बाबूजी ने है ये दुनिया छोड़ी
तब से छाया है सूनापन,मौन पडी है घर की ड्योढ़ी
जहाँ कभी रौनक बसती थी ,बाबूजी का अटटहास था
खुशियों की खन खन होती थी,गूंजा करता मधुर हास्य था
बूढ़ी माँ रह गयी अकेली,इतने लम्बे चोड़े  घर में
बेटे अपने घर ले आये ,माँ को बीमारी के डर   में
तब से ये वीरान पड़ा है,इसकी हालत जीर्ण शीर्ण है
ना लक्ष्मी सी माँ,न पिताजी ,इस घर की हालत विदीर्ण है
चूना पुती दिवारों पर है,कितनी ही पड़  गयी झुर्रियां 
 जगह जगह गिर रहा पलस्तर ,उखड़ी आँगन जड़ी पट्टियां
छत पर लगी चादरे टिन की ,कितनी जगह चुआ करती है
बूढा  होने पर हर एक की,हालत बुरी हुआ करती है
माँ कहती उसकी सुध ले लो,पर सारे बेटों का कहना
व्यर्थ करें क्यों उस पर खर्चा ,जब कि नहीं किसी को रहना
बेटे वहाँ नहीं रह सकते ,अलग अलग है सबके कारण
सब शहरों में बसे ,गाँव में,लगता नहीं किसी का भी मन
बात बेचने की करते तो,माँ स्पष्ट मना कर देती
उस घर के संग जुडी भावनाओं का है सदा वास्ता देती
निज हालत पर अश्रु बहाता ,वह घर अब चुपचाप खड़ा है
बसा हुआ माँ की यादों में ,अब वह घर वीरान पड़ा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जैसे उसके दिन फिरे ....

           जैसे उसके दिन फिरे ....

     पहले अस्त व्यस्त था रहता
     खुश,बिंदास मस्त था  रहता
     किन्तु हुई है जबसे शादी,
      बिलकुल अनुशासन में रहता
          जैसे उसके दिन फिरे ,सबके ही फिर जाय 
     जब से डाली है वरमाला
     बना किसी का है घरवाला
     पत्नीजी ने ठोक ठाक कर,
     पूरा उसे बदल ही डाला
            जैसे उसके दिन फिरे ,सबके ही फिर जाय
    बड़े चाव से दूल्हा बनकर
    काटे सात ,अग्नी के चक्कर
    पत्नीजी के आस पास ही  ,
    वो काटा करता है चक्कर
               जैसे उसके दिन फिरे ,सबके ही फिर जाय
    पति पत्नी में मेल हुआ जब
    और शादी का खेल हुआ जब
     ऐसा बंधा गृहस्थी बंधन ,
     वो कोल्हू का बेल हुआ अब
                 जैसे उसके दिन फिरे,सबके ही फिर जाय
    पहले मस्ती थी,अल्हड़पन
    ना श्रद्धा ना भजन कीर्तन
    भक्तिभाव जागा शादी कर,
     करता है नित पत्नी पूजन
                  जैसे उसके दिन फिरे ,सबके ही फिर जाय  
         
    मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

शनिवार, 30 नवंबर 2013

जीवन की चाल

              जीवन की चाल
बचपन में घुटनो बल चले ,डगमग सी चाल थी,
                     उँगली पकड़ बड़ों की,चलना सीखते थे हम
 आयी जवानी ,अपने पैरों जब खड़े हुए ,
                      मस्ती थी छायी और बहकने लगे कदम
चालें ही रहे चलते उल्टी ,सीधी ,ढाई घर ,
                       उनको हराने ,खुद को जिताने के वास्ते ,
सारी उमर का चाल चलन ,चाल पर चला ,
                     आया बुढ़ापा ,लाठी ले के चल रहे है हम
घोटू

हम गुलाब है

       हम गुलाब है

छेड़ोगे तो चुभ जायेंगे ,कांटे है बदन पर ,
                   सूँघोगे ,देंगे  तुमको ख़ुशबू  लाजबाब हम 
दिखते है पंखुड़ी पंखुड़ी अलग ,मगर एक है,
                    हैं एकता और भाईचारे की किताब  हम
मसलोगे तो गुलकन्द ,उबालो तो इत्र बन,
                    आयेंगे काम आपके ,बस बेहिसाब हम
काटोगे डाली ,रोप दोगे ,फिर से उगेंगे ,
                     महका देंगे जीवन तुम्हारा ,हैं गुलाब हम

घोटू

बलात्कार

           बलात्कार

कितने ही स्थानो पर ,कितनी ही बार
डाक बंगलों में,सूनी जगहों में ,
इधर उधर या सरे बाज़ार
हो जाता है बलात्कार
कितनी ही महिलाओं की ,इज्जत लूटी जाती है
उनमे से आधी से ज्यादा ,
सामाजिक कारणो से ,सामने नहीं आती है
कुछ की रिपोर्ट पुलिसवाले नहीं लिखते,
कुछ की रिपोर्ट ,लिखाई नहीं जाती है
रोज होते है ,कितने ही ऐसे बलात्कार
पर नहीं बनते है हेडलाइन के समाचार
ब्रेकिंग न्यूज तब बनती है जब कोई,
वी आई पी ,नेता ,संत या हाई प्रोफाइल वाला
किसी कन्या से करता है मुंह काला
और जब पीड़िता साहस करती है,
करने का  अपनी पीड़ा उजागर
तो बार बार टी वी के चेनलों पर
उस घटना की बखिया उधेड़ी जाती है
बिना सोचे कि इससे पीड़िता ,
कितनी और पीड़ा पाती है
पर उनकी तो टी आर पी बढ़ जाती है
ये बलात्कारी कैसे होते है ,
इन्हे कैसे है पहचाना जाता
जब भी ,किसी के अंदर का पशु ,
जहाँ कहीं भी है जग जाता
हो जाता वो उद्दण्ड ,भूल जाता मर्यादा
और अपनी हवस मिटाने को ,
क्या क्या कर जाता
उन्माद के क्षणों में ,
जब कुछ कर गुजरने की असीम उत्कंठा ,
विवेक का गला दबा देती है ,
मस्तिष्क निष्क्रीय हो जाता है ,
और पशुता पड़  जाती है भारी
आदमी बन जाता है बलात्कारी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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