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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

बदल भी जाइये।

बातों को हलके से लेना
अब तो सीख भी जाइये
इतना गौर जो फरमाया
करते थे भूल भी जाइये
छोटे छोटे थाने अब तो
ना ही खुलवाइये
जो खुल चुके हैं पहले से
हो सके तो बंद करवाइये
छोटे चोर उठाईगीरों को
बुला बुला के समझाइये
समय बदल चुका है
स्कोप बढ़ते जा रहा है
कोर्स करके आइये
और तुरंत प्लेसमेंट
भी पाईये
ऎसे मौके बार बार
नहीं आते एक
मौका आये तो
हजारों करोड़ो पर
खेल जाइये।
चोरी डाके की कोचिंग
हुवा करती है कहीं दिल्ली में
एक बार जरूर कर ही आइये
अब ऎसे भी ना शर्माइये
काम वाकई में आपका
गजब का हुवा करता है
लोगों को मत बताइये
खुले आम मैदान में
खुशी से आ जाईये
जेल नहीं जाईये
मैडल पे मैडल पाइये।

मोतीचूर,गुलाब जामुन,और जलेबी-क्यों?

   मोतीचूर,गुलाब जामुन,और जलेबी-क्यों?

मोतीचूर,

बून्दियों का है वो संगठित रूप,
जो सहकारिता का प्रतीक है,जिसमे,
सैकड़ों बूंदिया,हाथ में दे हाथ
बिना अपना व्यक्तित्व खोये,
जुडी रहती है आपस में,
अन्य बून्दियों के साथ
मोती स्वरुप,
बून्दियों का ये संयुक्त रूप,
जिसे बनाने में,
इन मोती सी बून्दियों को चूरा नहीं है जाता
मोतीचूर है क्यों कहलाता?
दुग्ध को जब हम करते है गरम,
तो वो उबलता है,उफनता है
मानव स्वभाव से,दूध का स्वभाव,
कितना मिलता जुलता है
पर यदि धीरज के खोंचे से,
दूध को हिलाते रहो,
तो उफान रुक जाता है
और दुग्ध,धीरज वान होकर,
धीरे धीरे बंध जाता है
दूध,जब इस तरह,अपने स्वभाव से,
करता है उफान या गुस्सा खोया
दूध का यह बंधा रूप,कहलाता है खोया
पर जब इस खोये की,
छोटी छोटी गोलियों को,घी में तल कर,
किया जाता है रस में लीन
तो उन्हें कहते है 'गुलाब  जामुन'
विचारणीय बात ये है,
कि ये रसासिक्त गोलियां,
न तो रखती है गुलाब कि खुशबू,
न जामुन कि रंगत,या स्वाद आता है
तो यह गुलाब जामुन क्यों कहलाता है?
मैदे का घोल,
गर्मी से एक दो दिवस बाद,
लगता है उफनने,और खमीर बना ये पदार्थ,
जिसे जब,एक छिद्र के माध्यम से,
अग्नि तपित घी में डाल कर,
विभिन्न स्वरुप में तल कर,
जब प्यार कि चासनी में डुबोया जाता है
तो उसका यह रसमय व्यक्तित्व,सभी को भाता है
पर जब टेड़े मेडे आकारों की ये  रसासिक्त कृतियाँ,
नहीं होती है जली कहीं भी
क्यों कहलाती है जलेबी?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

सर्दियों का आगाज़

      सर्दियों का आगाज़

आ गया कुछ  ऋतू में बदलाव सा है

सूर्य भी अब देर से उगने लगा  है
है बड़ा कमजोर सा और पस्त भी है
इसलिए ये शीध्र होता   अस्त भी है
फ़ैल जाता है सुबह से ही धुंधलका
हो रहा है धूप का सब तेज  हल्का
रात लम्बी,रह गया है दिन सिकुड़ कर
बोझ वस्त्रों का गया है बढ़ बदन पर
नींद इतनी आँख में घुलने लगी है
आँख थोड़ी देर से खुलने लगी  है
सपन इतने आँख में जुटने लगे है
आजकल हम देर से उठने  लगे है
हो गया कुछ इस तरह का सिलसिला है
रजाई में दुबकना लगता भला  है
चाय,कोफ़ी,या जलेबी गर्म खाना
आजकल लगता सभी को ये सुहाना
भूख भी लगने लगी,ज्यादा,उदर में
जी करे,बिस्तर में घुस कर,रहो घर में
पिय मिलन का चाव मन में जग रहा है
सर्दियां आ गयी,एसा   लग रहा  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

प्रिये !!


प्रिये !!

निःसंदेह हो
चक्षुओं से ओझल,
तेरी ही छवि
प्रतिपल निहारता,
स्मरण तेरा
प्रिये !!
आनंद बोध देता,
हृदय स्पर्शी होता
दूरी भी तेरी
प्रिये !!
समीपता का भाव लिए,
क्षण भर भी तुझसे
मैं परोक्ष नहीं हूँ |

वास तेरा
प्रिये !!
मेरे अन्तर्मन में
स्वयं का प्रतिरूप
तेरे नैनों में पाया,
फिर तू और मैं
मैं और तू कैसे ?
प्रिये !!
भौतिक स्वरूप भिन्न
एकीकृत अन्तर्मन,
होकर भी पृथक
तू और मैं
अभिन्न हैं प्रिये !!

दिल बहलाने

मधुमक्खी हर रोज
की तरह है भिनभिनाती
फूलों पर है मडराती
एक रास्ता है बनाती
बता के है रोज जाती
मौसम बहुत है सुहाना
इसी तरह उसको है गाना
भंवरा भी है आता
थोड़ा है डराता
उस डर में भी तो
आन्नद ही है आता
चिड़िया भी कुछ
नया नहीं करती
दाना चोंच में है भरती
खाती बहुत है कम
बच्चों को है खिलाती
रोज यही करने ही
वो सुबह से शाम
आंगन में चली है आती
सबको पता है रहता
इन सब के दिल में
पल पल में जो है बहता
हजारों रोज है यहाँ आते
कुछ बातें हैं बनाते
कुछ बनी बनाई
है चिपकाते
सफेद कागज पर
बना के कुछ
आड़ी तिरछी रेखाऎं
अपने अपने दिल
के मौसम का
हाल हैं दिखाते
किसी को किसी
के अन्दर का फिर भी
पता नहीं है चलता
मधुमक्खी भंवरे
चिड़िया की तरह
कोई नहीं यहां
है निकलता
रोज हर रोज है
मौसम बदलता
कब दिखें बादल और
सूखा पड़ जाये
कब चले बयार
और तूफाँ आ जाये
किसी को भी कोई
आभास नहीं होता
चले आते हैं फिर भी
मौसम का पता
कुछ यूँ ही लगाने
अपना अपना दिल
कुछ यूँ ही बहलाने ।

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