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बुधवार, 23 नवंबर 2011

भगवती शांता परम

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी) सर्ग-१  प्रस्तावना

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)-सर्ग-२  शिशु-शांता

   सर्ग-3  बाला-शांता
भाग-1
सम गोत्रीय विवाह
फटा कलेजा भूप का, सुना शब्द विकलांग |
ठीक करो मम संतती, जो चाहे सो मांग ||

भूपति की चिंता बढ़ी, छठी दिवस से बोझ |
तनया की विकृति भला, कैसे होगी सोझ ||

रात-रात भर देखते, उसकी दुखती टांग |
सपने में भी आ जमे, नटनी करती स्वांग ||

गुरु वशिष्ठ ने एक दिन, भेजा भूप बुलाय |
सह सुमंत आश्रम गए, बैठे शीश नवाय ||

सकल जगत के लो बुला, चर्चित वैद्य-हकीम |
सम्मलेन कर लो खुला, बंधन मुक्त असीम ||

कर के दोनों दंडवत, लौटे निज दरबार |
भेजे हरकारे सकल, समझाकर तिथि-वार ||
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नीमसार की भूमि पर, मंडप बड़ा सजाय |
श्रावण की थी पूर्णिमा, रही चांदनी छाय ||

रक्षा बंधन पर्व कर, जमे चिकित्सक वीर |
जांच कुमारी की करें, होता विकल शरीर ||

विषय बहुत ही साफ़ था, वक्ता थे शालीन |
सबका क्रम निश्चित हुआ, हुए कर्म में लीन ||

उदघाटन करने चले, अंग-देश के भूप |
नन्हीं बाला का तभी, देखा सौम्य स्वरूप ||

लगी भली वह बालिका, मुख पर छाया तेज |
पैर धरा पर न पड़े, राखो हृदय सहेज ||

स्वागत भाषण पढ़ करें, राज वैद्य अफ़सोस |
जन्म कथा सारी कही, रहे स्वयं को कोस ||

वक्ताओं ने फिर रखी, वर्षों की निज खोज |
सुबह-सुबह चलती रही, परिचर्चा कुछ रोज ||

दूर दूर से आ रहे, प्रतिदिन विषम मरीज |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य तजबीज ||

चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |
गोत्रज व्याहों की विकट, महा विकलता देन ||

राजा रानी अवध के, हैं दोनों गोतीय |
अल्पबुद्धि-विकलांगता, सम दुष्फल नरकीय ||

गुण-सूत्रों की विविधता, बहुत जरूरी चीज |
गोत्रज में कैसे मिलें, रहे व्यर्थ क्यूँ खीज ||

 गोत्रज दुल्हन जनमती, एकल-सूत्री रोग |
 दैहिक सुख की लालसा, बेबस संतति भोग ||

साधु साधु कहने लगे, सब श्रोता विद्वान |
सत्य वचन हैं आपके, बोले वैद्य महान ||

अब तक के वक्ता सकल, करके अति संकोच |
मूल विषय को टाल के, रखें अन्य पर सोच ||

सारे तर्क अकाट्य थे, छाये वहां सुषेन |
भारी वर्षा थम गई, नीचे बैठी फेन ||

आदर से दशरथ कहें, प्रभू दिखाओ राह |
विषम परिस्थिति में हुआ, कौशल्या से ब्याह ||

नहीं चिकित्सा शास्त्र  में, इसका दिखे उपाय |
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||

व्याख्यान अपना ख़तम, करते वैद्य सुषेन |
आये तब श्रृंगी ऋषी, बोले ऐसे बैन ||

एक गोत्र की संतती, झेले अगर विकार |
गोद किसी की दीजिये, सुधरे शुभ आसार ||

प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |
धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होती जय जय घोष ||

अंगराज श्री  रोम्पद, आये दशरथ पास |
अभिवादन करके कहें, करिए नहीं निराश ||

  ब्याह हुए बारह बरस, सूनी अब भी गोद |
बेटी प्यारी सौंपिए, बाढ़े मंगल-मोद ||

दशरथ अब भी सोच में,  कैसे दे दें गोद |
  दिल को अपने गोद के, करें कसक अनुमोद ??

कौशल्या हामी भरी, अंगदेश जा दूत |
 महरानी चम्पा बुला,  करती दिल मजबूत ||

अंगराज भी खुश हुए, रानी को बुलवाय |
रस्म गोद करके सफल, उनकी गोद भराय ||

अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||  

 तब सुषेन के शिविर में, पहुंचे अवध नरेश |
चेहरे पर चिंता बड़ी, चर्चा चली विशेष ||

बोले वैद्य सुषेन जी, सुनिए हे महिपाल |
ऐसी संताने सहें,  बीमारी विकराल ||

 गोत्रज शादी को भले, भरसक दीजे टाल | 
मंजूरी करती खड़े, टेढ़े बड़े सवाल ||

मामा लेवे गोद जो, कर दे कन्या-दान |
उल्टा हाथ गुमाय के, खींचें सीधे कान ||

मिटते दारुण दोष पर, ईश्वर अगर सहाय  |
सबसे उत्तम ब्याह में, दूरी रखो बनाय ||

 गोत्र-प्रांत की भिन्नता, नए नए गुण देत |
बल बुद्धि विद्या प्रबल, साहस रूप समेत ||

सहज रूप से सफल हो, रावण का अभियान |
किया दूर रनिवास से, राजा को यह ज्ञान  ||

आई रानी अंग से,  लाया दूत बुलाय | 
कौशल्या के अंग से, अमृत बहता जाय ||

लगे तीन दिन गोद में, साइत शुभ आसन्न |
नया देश माता नई, हुई रीति संपन्न ||

जन्म-दायिनी छूटती, रोवे बुक्का-फार |
दिल का टुकड़ा सौंप दी, महिमा अपरम्पार ||

आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
 अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार ||  

कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
 जननी आती याद तो, करती कन्या तंग ||

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

बदलता हुआ मौसम और तुम

बदलता हुआ मौसम और तुम
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उन दिनों आम का मौसम था,
जब गर्मी से,कुम्हला गए थे गाल तुम्हारे ,
और उनकी रंगत हो गयी थी,
आम जैसी पीली पीली और स्वर्णिम
अब सेवों का मौसम आगया है,
और अब सर्द हवाओं की छेड़छाड़ ने,
तुम्हारे गालों में भर दिया है,
गुलाबी रंग,
और अब तुम्हारे गालों की रंगत है,
सेव जैसी लाल लाल और रक्तिम
मौसमी फलों की तरह,
तुम भी रंग बदलती रहती हो,
गर्मी में गरम लू के थपेड़ों की तरह,
तो सर्दी में शीतल  हवाओं की तरह बहती हो
मेरी हमदम,
नया स्वाद और नूतन रंगत,
मौसम के संग,तुममे हर दम

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

सोमवार, 21 नवंबर 2011

हस्ती हमारी


आशियाँ हमने बना रखा है तूफानों में,
और तूफानों को समेट रखा है अरमानो में,
हस्ती अब तो इतनी है हम दीवानों में,
अँधेरे में भी तीर लगते हैं निशानों में |

आशाएं हैं भरी हमारी उड़ानों में,
हौसलों की उठान है आसमानों में,
साहस है भरा, जो बिकते नहीं दुकानों में,
अक्सर तौलतें हैं खुद को पैमानों में |

देखेंगे कितना है दम इन हुक्मरानों में,
दिखायेंगे कितना है जोश हम जवानों में,
क्या रखा है अब उन पुराने फसानों में,
वो कर दिखायेंगे जो नहीं हुआ जमानों में |

आओ मम्मी पापा खेलें

आओ मम्मी ,पापा खेलें
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बहुत बोर हो गए अकेले
आओ मम्मी पापा खेलें
रोज सवेरे तुम सजधज कर
बेठ कर में जाओ दफ्तर
और शाम को जब घर आओ
ब्रीफकेस भर पैसे लाओ
मै क्लब,किट्टी पार्टी जाऊं
नए नए गहने बनवाऊ
रोज घूमने बाहर जाये
पिक्चर देखें,पीजा खायें
अरे नहीं ये खेल पुराना
अब तो आया नया ज़माना
डेली ब्रीफकेस भर पैसा
है ये खेल बड़े खतरे का
बहुत खेल ये हमने खेले
आओ नेता नेता खेले
मै  नेता बन, बनू मिनिस्टर
दुनिया घूमू,तुमको लेकर
बस दो चार,डील हो जाये
कई करोड़ों ,रूपये आयें
नहीं रखेंगे पैसे घर में
पर स्विस बेंको में,डालर में
इतने पैसे जाये कमाये
अपनी सात पुश्त तर जाये
नहीं नहीं ये खेल  तुम्हारा
तो है बड़े टेंशन वाले वाला
अगर कोई स्केम खुल गया
तो  फिर सारा खेल धुल गया
टी.वी.पर बदनामी  हर दिन
  मंत्री पद से करो रिजाइन
सी.बी.आई, तंग करेगी
जेल तिहाड़ ,तुम्हे भेजेगी
ना बाबा ना ,यूं  घबराकर
तुमसे मिलने,मुंह लटकाकर
मै तिहाड़ में ना आउंगी
सबको क्या मुंह दिखलाउंगी
 इन खेलों में बड़े झमेले
आओ स्कूल स्कूल  खेलें
एंट्रेंस की तैयारी कर
करते रहें पढाई जम कर
तुम आई आई टी ,इंजिनीयर
और मै बन कर बड़ी डाक्टर
करें काम,हो नहीं टेंशन
सुख शांति से काटे जीवन
 काहे  को हम मुश्किल झेलें
आओ स्कूल स्कूल खेलें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

 

रविवार, 20 नवंबर 2011

बढ रही है बड़ी ठिठुरन-रूमानी हो जाए हम तुम

बढ रही है बड़ी ठिठुरन-रूमानी हो जाए हम तुम
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सर्दियों  की इस सुबह में,बढ़ रही है बड़ी ठिठुरन
दुबक कर के ,रजाई में,चाय की लें ,चुस्कियां हम
शीत का है सर्द मौसम,और उस पर  घना कोहरा
और फिर ठंडी हवाएं, हो रहा है सितम दोहरा
नहीं सूरज   नज़र आता ,देख ये आलम जमीं पर
ओढ़ चादर कोहरे की,छुप गया है वो कहीं पर
देख  मौसम की रवानी,हो गया उद्दंड  पानी
रचाने को रास मिल कर,हवाओं संग,हो रूमानी
सूक्ष्म बूंदों में विभक्षित हो गया घुल मिल हवा से
और सूरज को छुपाया, देख ना ले,वो वहां से
छा रहा इतना धुंधलका,आज पंछी कम उड़े  है
देख मौसम की नजाकत,नीड़ में दुबके पड़े है
और तुम पीछे पड़ी हो,उठो,अब छोडो  रजाई
और तुम अंगड़ाई लेकर,भर रही हो ,तुम जम्हाई
आओ ना,शरमाओ ना तुम,हो गयी जो सुबह तो क्या
प्यार का है मधुर मौसम,चैन से लो,मज़ा इसका
'अजी छोडो,बुढ़ापे में,चढ़ रही मस्ती तुम्हे है
काम वाली भी अभी तक आई ना ,बर्तन पड़े है
मुझे चिंता काम की है ,और रूमानी हो रहे तुम'
सर्दियों की इस सुबह में,बढ़ रही है ,बहुत ठिठुरन

मदन मोहन बहेती'घोटू'

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