एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

शुक्रवार, 13 मई 2016

कल बीबी बिमार पड़ गयी

कल बीबी बिमार   पड़ गयी

पल पल चिंता,पग पग मुश्किल,
परेशानियां खूब बढ़ गयी
कल बीबी बिमार पड़ गयी
उलट पुलट हो गयी जिंदगी ,अस्त व्यस्त घरबार हो गया
घर का जमा जमाया सिस्टम,एक दिन में बेकार हो गया
क्या  खाना है,क्या पीना है ,कहाँ ,किधर है कपड़े ,लत्ते
दूध  मंगाना ,चाय  बनाना ,सभी  पड़ गया ,मेरे  मथ्थे
उस पर दूना हुआ सितम  ये ,महरी भी छुट्टी कर बैठी
 ये कर लो तुम,ऐसे कर लो ,रही बताती ,लेटी  लेटी
उसमे हिम्मत ,नहीं जरा थी ,इतनी थी ,कमजोरी आई
किन्तु बीच में ,उठ उठ उसने ,कई समस्याएं सुलझाई
सारे काम किया करती थी ,दौड़ दौड़ कर ,जो हंस हंस कर
उसका सारा ही दिन बीता ,सोते सोते, टसक टसक कर  
एक दिवस में ,उसका खिलता , फूलों सा चेहरा मुरझाया
 रौनक सारी ,खतम हो गई,और  घर में सूनापन  छाया
एक दिवस में ,पता लग गयी,बीबीजी की हमें अहमियत
उन्हें दवा  दी,ज्यूस पिलाया ,जल्दी से हो, ठीक तबियत
हुई बीमार सी ,मेरी हालत,  जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी
कल  बीबी बिमार पड़ गयी 

'घोटू'

मंगलवार, 10 मई 2016

ज़ीरो फिगर

 ज़ीरो फिगर

दुबला पतला सा बदन,तन पर चढ़ा न मांस
 मज़ा कहाँ से आयेगा ,करने  में   रोमांस
करने में रोमांस  ,कमरिया खाती हो बल
बड़े शान से दिखलाते  है  ज़ीरो  फिगर
जीरो होता गोल ,बदन मोटा ,मदमाता
बदन सींक सा,पर क्यों ज़ीरो फिगर कहाता

घोटू

घर की बीबी

                 
                                     घर की बीबी

अजनबी शहर ,बड़ा भव्य ,बड़ा सुंदर हो,
                 एक दो दिन का भ्रमण ,ठीक भला लगता है
घूमलो ,फिरलो ,इधर उधर मस्तियाँ करलो ,
                   मगर सुकून तो घर पर ही मिला करता है
कितना ही गुदगुदा बिस्तर हो किसी होटल का,
                चैन की नींद ,घर की खटिया पर ही आती है
रसीले व्यंजनों को देख कर क्या ललचाना ,
                       भूख तो, दाल रोटी घर की ही मिटाती  है
भले ही खुशबू भरा और खूबसूरत है ,
                    मगर गुलाब वो औरों का है,मत  ललचाओ
तुम्हारे घर में जो जूही की कली मुस्काती,
                   उसी की खुशबू से ,जीवन को अपने महकाओ
पड़ोसी घर में भले लाख झाड़ फानूस है
                       ,हजारों शमाओं से जगमगाता आंगन है
आपके टिमटिमाते दीये की बदौलत ही ,
                      आपकी झोपड़ी ,छोटी सी रहती ,रोशन है
देख लो लाख गोरी गोरी मेमों के जलवे,
                        काम  में आती मगर ,आपकी ही बीबी है
तुम्हारे घर की वो ही खुशियां और रौनक है ,
                         तुम्हारी खैरख्वाह है और खुशनसीबी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डर

                                       डर

कोई को डर लगता कॉकरोच से है,,तो फिर कोई डरता है छिपकलियों से
कोई बादल गर्जन ,बिजली से डरता , तो कोई डरता अंधियारी गलियों से
कोई को ऊंचाई बहुत डराती है , तो कोई को डर लगता  गहरे जल से
कोई पुलिस से डरे ,कोई बदमाशों से ,कोई बॉस से डरता ,कोई टीचर से
सबके अलग अलग ,अपने डर होते है,गाहे बगाहे हमे डराया है करते 
बचपन में बच्चे डरते माँ बापों से ,   बच्चों  से  माँ बाप बुढ़ापे में डरते 
लेकिन शाश्वत सत्य एक है दुनिया में,हर शौहर अपनी बीबी से डरता है
एक इशारे भर पर जिसकी ऊँगली के ,बेचारा जीवन भर नाचा करता है
बीबी से डरने की अपनी लज्जत है,वह खिसियाना स्वाद निराला होता है
घर में चलता राज हमेशा बीबी का ,पर कहने को वो घरवाला  होता  है 
पत्नी पका खिलाये खाना कैसा भी ,डर के मारे तारीफ़ करनी पड़ती है
वर्ना रोटी के भी लाले पड़ जाते है,और सोफे पर सारी रात  गुजरती है
डर के कारण ही क़ानून व्यवस्था है ,डर से दफ्तर में रहता अनुशासन है
पास फ़ैल के डर के कारण बच्चों का ,करने में पढ़ाई लगता थोड़ा मन है
ऊपरवाला देख रहा है हर हरकत ,इस डर से हम बुरे काम से डरते है
डर मृत्यु का मन में सदा बना रहता ,दान धर्म,सत्कर्म इसलिए करते है
यम के डर के कारण दुनिया कायम है,उच्श्रृंखलता पर लगी हुई पाबंदी है
वर्ना लोभ,मोह और माया में दुनिया ,कुछ न देखती और हो जाती अंधी है
मेरा यह स्पष्ट मानना है लेकिन,जो शासित है,वो रहता अनुशासित है
डर डर,सम्भले,चले ,नहीं डर ठोकर का ,डर कर रहने में ही तो सबका हित है
कोई कहता भय बिन प्रीत नहीं होती ,कोई को थप्पड़ ना,प्यार डराता है 
बहुत घूम फिर,यही नतीजा  निकला है ,वह डर ही है,जो संसार चलाता  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 


कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

    कल की बहू -आज की सास -त्रास ही त्रास

हम उस पीढ़ी की बहुएं थी ,जिनने सासों को झेला है
अब सास बनी तो झेल रही ,बहुओं का रोज झमेला है
इस त्रसित हमारी पीढ़ी ने ,झेला सासों का अनुशासन
उठ सुबह काम में जुत जाना ,चूल्हा,चौका,झाड़ू,बर्तन
उस पर भी सर पर घूंघट हो ,सासों की तानाशाही  थी
थोड़ी सी गलती हो जाती,मच जाती बड़ी  तबाही थी
ये भी न सिखाया क्या माँ ने ,कुछ भी ना आता तुम्हे बहू
इस तरह प्रताड़ित होने पर ,खाता उबाल था गरम लहू
पर मन मसोस रह जाते थे ,कुछ  ऐसे ही थे  संस्कार
कुछ हमे रोक कर रखता था ,अपने साजन का मधुर प्यार 
बस इसी तरह बीता यौवन , मन को समझा जैसे तैसे
हम भी जब सास बनेंगी तो ,फिर ऐश करेंगी कुछ ऐसे
लेकिन जब तक हम बनी सास,वो बात पुरानी नहीं रही
सब सास पना हम भूल गयी, उलटी गंगा इस तरह बही
 सारा सिस्टम ही बदल गया ,बहुओं के हाथ लगा पॉवर
सासें दिन भर सब काम करे ,और बहू रहे घर के  बाहर
अब सास संभाले बच्चों को,घर का सब काम,किचन,खाना
रहती है दब कर बहुओं से ,मुश्किल  होता कुछ कह पाना
हम बहू रही  या सास बनी,हमने हरदम दुःख पाये है
सासों का जलवा ख़तम हुआ ,अब बहुओं के दिन आएं है
रख ख्याल प्रतिष्ठा का कुल की ,कुछ पुत्र मोह के चक़्कर में 
कुछ बंधन पोते पोती का  ,रखता है बाँध  हमें घर में
भगवान बता ,तूने हम संग,ये खेल अजब क्यों खेला है
हम उस पीढ़ी की बहुएं  थी, जिनने  सासों को  झेला है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-