एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

धुंध


देश ये पूरा
है धुंध की चपेट में,
चारो ही तरफ
है इसका ही साया;
जीवन अस्त-व्यस्त
आमो-खाश भी परेशान,
रेल, सड़क, वायु तक
हर मार्ग है बाधित;
ठण्ड के जोर से
हर चेहरा कुम्भलाया |

चादर ये कोहरे की
है क्षणभंगुर,
चाँद दिनों के बाद ही
सब यथावत होगा,
बसंत राजा के साथ ही
ये धुंध भी छंटेगा |

ये धुंध तो मेहमान है
चंद दिनों या महीने की,
पर उस धुंध का क्या
जो देश पर है छाया;
भ्रष्टाचार रूपी धुंध का
प्रकोप है हर तरफ,
हर जगह, हर शख्श
है इसके आगोश में |

देश को तबाही की ओर
है इसने बढ़ा रखा,
कारण तो कई है
पर समाधान दिखता नहीं,
पता नहीं कब तक
रहेगा ये घना साया ?
न जाने कब तक
रहेंगे हम लपेटे में ?

इस धुंध से वो धुंध
कहीं ज्यादा विकट है,
इस धुंध से सिर्फ
कुछ सेवाएं है रुकी;
उस धुंध ने तो
है देश को रोक रखा;
देश की प्रगति को
उसने बाधित कर रखा,
अर्श के बदले देश आज
फर्श में है पड़ा |

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

शिकवा-शिकायत


शिकवा-शिकायत

 
 
 
 
 
 
Rate This

शिकवा-शिकायत
——————-
देख कर अपने पति की बेरुखी,
करी पत्नी ने शिकायत इस तरह
हम से अच्छे तुम्हारे ‘डॉग’ है,
घुमाते हो संग जिनको हर सुबह
गाजरों का अगर हलवा चाहिये,
गाजरों को पहले किस करना पड़े,
इन तुम्हारे गोभियों के फूल से,
भला गुलदस्ता सजेगा किस तरह
सर्दियों में जो अगर हो नहाना,
बाल्टी में गर्म पानी चाहिये,
छत पे जाने का तुम्हारा मन नहीं,
धूप में तन फिर सिकेगा किस तरह
झिझकते हो मिलाने में भी नज़र,
और करना चाहते हो आशिकी,
ये नहीं है सेज केवल फूल की,
मिलते पत्थर भी है मजनू की तरह
तड़फते रहते हो यूं किस के लिए,
होंश उड़ जाते है किस को देख कर,
किसलिए फिर अब तलक ना ‘किस’ लिए,
प्यार होता है भला क्या इस तरह
कर रखी है बंद सारी बत्तियां ,
चाहते हो चाँद को तुम देखना,
छूटती तुमसे रजाई ही नहीं,
चाँद का दीदार होगा किस तरह मदन मोहन बाहेती ‘घोटू’

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

मेरा पहला खंड-काव्य-रविकर

तय तो यह था... विनम्र श्रद्वांजलि

बीते नवम्बर की आठ तारीख को तरक्की के इस जमाने में एक जंगली बेल ... की मुहिम चलाने वाली सुश्री डा0 सन्ध्या गुप्ता जी नहीं रही । उनके असामयिक निधन की सूचना ब्लाग जगत में विलंब से प्राप्त हुयी । श्री अनुराग शर्मा जी के पिटरबर्ग से एक भारतीय नामक ब्लाग .. पर प्रकाशित श्रद्वांजलि से यह ज्ञात हो सका कि डा0 सन्ध्या गुप्ता जी नहीं रहीं। वे विगत नवम्बर 2010 तक अपने ब्लाग पर सक्रिय रूप से लिखती रहीं फिर लगातार ब्लाग जगत में अनुपस्थित रही थी । इस अनुपस्थिति की बाबत 4 अगस्त 2011 में एक दिन अचानक अपने ब्लाग पर ‘फिर मिलेंगे’... नामक शीर्षक के छोटे से वक्तब्य के साथ प्रगट हुयी थीं तब उन्होने अवगत कराया था कि वे जीभ के गंभीर संक्रमण से जूझ रही थीं और शीघ्र स्वस्थ होकर लौट आयेंगी । आज उन्हे श्रद्वांजलि स्वरूप प्रस्तुत है उनके ब्लाग पर नवम्बर 2010 को प्रकाशित उनकी ही कविता "तय तो यह था..."
तय तो यह था...
तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल
तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल
अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
प्रस्तुतकर्ता sandhyagupta पर ८:३२:०० पूर्वाह्न
सचमुच!
तय तो यह था कि
तुम इलाज के लिए गयी थी
सो लौट आती सकुशल
परन्तु ...तुम्हीं सो गये दास्तां कहते कहते....
ईश्वर डा0 सन्ध्या गुप्ता जी को स्वर्ग में स्थान दे इसी हार्दिक श्रद्वांजलि के साथ......

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

लगे उठने अब करोड़ों हाथ है

लगे उठने अब करोड़ों हाथ है
----------------------------------
करोड़ों  के पास खाने को नहीं,
                 और नेता करोड़ों में खेलते
झूंठे झूंठे वादों की बरसात कर,
                 करोड़ों की भावना से खेलते
करोड़ों की लूट,घोटाले कई,
                  करोड़ों स्विस बेंक में इनके जमा
पेट फिर भी इनका भरता ही नहीं,
                 लूटने का दौर अब भी ना थमा
  सह लिया है बहुत,अब विद्रोह के,
                  लगे उठने अब करोड़ों हाथ है
क्रांति का तुमने बजाय है बिगुल,
                 करोड़ों, अन्ना,तुम्हारे साथ है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-