चवन्नी की पीड़ा
कल मैंने जब गुल्लक खोली
एक कोने में दबी दबी सी, सहमी एक चवन्नी बोली
कल मैंने जब गुल्लक खोली
आज तिरस्कृत पड़ी हुई मैं,इसमें मेरी क्या गलती थी
मुझे याद मेरे अच्छे दिन ,जोर शोर से मैं चलती थी
मेरी क्रय शक्ति थी इतनी, अच्छा खानपान होता था
सवा रुपए की परसादी में ,मेरा योगदान होता था
अगली सीट सिनेमाघर की ,क्लास चवन्नी थी कहलाती
सस्ते में गरीब जनता को ,पिक्चर दिखला, दिल बहलाती
जब छुट्टा होती तो मिलते चार इकन्नी , सोलह पैसे
मेरी बड़ी कदर होती थी ,मेरे दिन तब ना थे ऐसे
मार पड़ी महंगाई की पर, आकर मुझे अपंग कर दिया
मेरी वैल्यू खाक हो गई ,मेरा चलना बंद कर दिया
अब सैया दिल नहीं मांगते,ना उछालते कोई चवन्नी
और भिखारी तक ना लेते, मुझे देखकर काटे कन्नी
पर किस्मत में ऊंच-नीच का चक्कर सदा अड़ा रहता है
कभी बोलती जिसकी तूती, वह भी मौन पड़ा रहता है
भोग रही मैं अपनी किस्मत ,जितना रोना था वह रो ली
एक कोने में दबी दबी सी , सहमी एक चवन्नी बोली
कल मैंने जब गुल्लक खोली
मदन मोहन बाहेती घोटू