एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

शनिवार, 9 जून 2018

बुढ़ापे में आशिकी का चक्कर 

एक दिन ,
हमारे बुजुर्ग साथी का विवेक जागा 
तो वो उन्होंने अपने अंतर्मन के पट खोले 
और अपनी धर्मपत्नी से बोले 
तुम मुझसे इतना प्यार करती हो 
तुम मेरा इतना ख्याल रखती हो 
फिर भी मैं जब तब 
जवान महिलाओं की तरफ 
ललचाई नज़रों से ताकता हूँ 
जब भी  मौका मिलता है ,
उनके पीछे चोरी छुपे भागता हूँ 
मैं जानता हूँ ये गलत है पर मुझे सुहाता है 
क्या मेरी इन हरकतों पर ,
तुम्हे गुस्सा नहीं आता है 
पत्नी ने मुस्करा कर दिया जबाब 
इसमें बुरा मान कर,
 मैं क्यों अपना दिमाग करू खराब 
आप मेरे हाथ से फिसलो ,
ये आपकी औकात नहीं है 
मैंने कई कुत्तों को ,
चमचमाती कार के पीछे दौड़ते देखा है 
जब कि वो जानते है कि कार ड्राइव करना ,
उनके बस की बात नहीं है 
तुम लाख लड़कियों के पीछे दौड़ो ,
वो डालनेवाली तुम्हे घास नहीं है 
और अगर बदकिस्मती से उसे पटालोगे 
तो मैं तो तुमसे सम्भल नहीं पाती  ,
उसको क्या संभालोगे ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
अम्मा गयी विदेश 

निमंत्रण उसको मिला विशेष 
हमारी अम्मा  गयी  विदेश 
देख वहां की मेहरारू को ,अम्मा है शरमाती 
ऊंचा सा स्कर्ट पहन कर ,मेम चले इतराती 
ना सर चुन्नी,नहीं दुपट्टा ,खुली खुली सी छाती 
मरद से काटे छोटे केश 
हमारी अम्मा गयी विदेश 
खान पान भाषा से उसकी नहीं बैठती पटरी 
जाय घूमने,भूख लगे तो ,अम्मा खोले  गठरी 
ना पीज़ा बर्गर वो  खाये  अपने  लड्डू ,मठरी
यही है उसका भोज विशेष 
हमारी अम्मा गयी विदेश 
पोती और जमाई घूमे ,दिन भर पहने नेकर 
चकला बेलन नहीं ,बनाता रोटी,'रोटी मेकर '
एक दिन सब्जीदाल बनाकर खाते है हफ्तेभर
रसोई का ना निश दिन क्लेश 
हमारी अम्मा गयी विदेश 
जगह जगह पर छोरा छोरी और विदेशी जोड़े 
लाज शरम  तज,चूमाचाटी करते  दिखे निगोड़े 
होय लाज  से पानी अम्मा, मुंह पर घूँघट ओढ़े 
मुओं को शरम बची ना शेष 
हमारी अम्मा गयी विदेशी 
यूं तो सुथरा साफ़ बहुत ये देश है अंग्रेजों का 
महरी नहीं,मशीने करती ,बर्तन ,झाड़ू ,पोंछा 
टॉयलेट में नल ना ,कागज से पोंछो,ये लोचा 
लगे है दिल पर कितनी ठेस 
हमारी अम्मा गयी विदेश 
नहीं समोसे,नही जलेबी ,नहीं चाट के ठेले 
सब इंग्लिश में गिटपिट करते,घूम न सके अकेले 
डॉलर की कीमत रूपये में बदलो,रोज झमेले 
यहाँ का बड़ा अलग परिवेश 
हमारी अम्मा गयी विदेश 
पोती ने जिद कर अम्मा को नयी जींस पहना दी 
एक सुन्दर सा टॉप साथ में एक जर्सी भी ला दी 
मेम बनी अम्मा ,शीशे में देख स्वयं  शरमाती 
पहन कर अंग्रेजों का भेष     
हमारी अम्मा गयी विदेश 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
हम भी अगर बच्चे होते 

कहावत है 
बच्चे और बूढ़े ,होते है एक रंग 
जिद पर आजाते है ,
तो करते है बहुत तंग 
दोनों के मुंह में दांत नहीं होते 
स्वावलम्बी बनने के हालत नहीं होते 
किसी का सहारा लेकर चलते है 
बात बात पर मचलते है 
और जाने क्या सोच कर ,
कभी मुस्कराते है,कभी हँसते है 
वैसे ये भी आपने देखा होगा ,
कि सूर्योदय और सूर्यास्त  की छवि ,
एक जैसी दिखती है 
पर सूर्योदय के बाद जिंदगी खिलती है 
और सूर्यास्त के बाद जिंदगी ढलती है 
दोनों सा एक जैसा बतलाना हमारी गलती है 
'फ्रेश अराइवल ' के माल को ,
'एन्ड ऑफ़ सीजन 'के सेल वाले माल से ,
कम्पेयर करना कितना गलत है 
आपका क्या मत है ?
छोटे बच्चों को ,सुंदर महिलाएं 
रुक रुक कर प्यार करती  है 
कभी गालों को सहला कर दुलार करती है 
कभी सीने से चिपका लेती है 
कभी गोदी में बैठा लेती है 
कभी अपने नाजुक होठों से ,
चुंबन की झड़ी लगा देती है 
क्या आपने कभी ऐसा,
 किसी बूढ़े के साथ होते हुए देखा है 
नहीं ना ,भाई साहब ,
ये तो किस्मत का लेखा है 
बूढ़े तो ऐसे मौके के लिए ,
तरस तरस जाते है 
अधूरी हसरत लिए ,
दिल को तड़फाते है 
कोई भी  कोमलंगिनी 
उनके झुर्राये गालों को नहीं सहलाती 
चुंबन से या सीने से चिपका ,
मन नहीं बहलाती 
न कभी कोई बाहों में लेती है 
उल्टा 'बाबा' कह कर के दिल जला देती है 
बेचारे बूढ़े ,आँखों में प्यास लिए ,
मन ही मन है रोते
यही सोच कर की , 
हम भी अगर बच्चे होते 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 

रविवार, 6 मई 2018

I sell a house

Hello, I sell a house in Santander Spain for an amount of € 1400000 (you must pass it to your currency to see the exact amount). If you are interested in buying it, please send me a message and I will explain more details. I send you the plans of the house in PDF format.
Thanks for your time


बुधवार, 2 मई 2018

साकार सपन 

कभी कुछ करने का मन में ,सपन हमने संजोया था 
प्यार से एक पौधे को  , जतन  से  हमने बोया था 
संवारा हमने तुमने मिल ,बड़ी मेहनत से सींचा है 
खुदा की मेहरबानी से ,गया बन अब ,बगीचा है 
बहारें आई अब इसमें ,फूल कितने महकते है 
दरख्तों पर ,रसीले से ,हजारों फल लटकते है 
यही कोशिश है हरदम ,कि आये कोई भी मौसम 
फले,फूले और हरियाली ,सदा इसकी रहे कायम 

मदन मोहन बाहेती;घोटू;

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-