मैं गृहस्थन हो गयी हूँ
अदाएं कम हो गयी है
शोखियाँ भी खो गयी है
सदा सजने संवरने की ,
अब रही फुरसत नहीं है
रोजमर्रा काम इतने ,
व्यस्त हरदम हो गयी हूँ
मैं गृहस्थन हो गयी हूँ
गए वो कॉलेज के दिन ,
गयी चंचलता चपलता
मौज मस्ती का वो मौसम ,
आज भी है मन मचलता
ठेले के वो गोलगप्पे ,
केंटीन के वो समोसे
बंक करके क्लास,पिक्चर
देख ,खाना इडली,दोसे
था बड़ा मनमौजी जीवन,
उमर थी कितनी सुहानी
लेना पंगे हर किसी से ,
और करना छेड़खानी
नित नए फैशन बदलना
फटी जीने ,टॉप झीने
आशिकों की लाइन लगती,
तब बड़ी बिंदास थी मैं
वो बसंती दिन गए लद ,
सर्द मौसम हो गयी हूँ
मैं गृहस्थन हो गयी हूँ
मस्तियाँ सब खो गयी है ,
हुआ बिगड़ा हाल तब से
बन के दुल्हन ,आयी हूँ मैं ,
शादी कर ससुराल जब से
पति मुझमे ढूंढते है ,
अप्सरा का रूप प्यारा
सास मुझसे चाहती है ,
करू घर का काम सारा
ससुर की है ये अपेक्षा ,
बहू उनकी करे सेवा
ननद ,देवर सभी की ,
फरमाइशें है ,जानलेवा
सभी को संतुष्ट रखना ,
और सबके संग निभाना
भूल कर संस्कार बचपन
के नए रंग,रंग जाना
ना रही मैं एक बच्ची ,
अब बढ़प्पन हो गयी हूँ
मैं गृहस्थन हो गयी हूँ
एक तरफ प्यारे पियाजी ,
प्यार है अपना लुटाते
एक तरफ कानो में चुभती ,
सास की है कई बातें
नवविवाहित कोई दुल्हन ,
उमंगें जिसके हृदय में
सहम कर सब काम करती,
गलती ना हो जाय,भय में
कुशलता से घर चलाना ,
बढ़ी जिम्मेदारियां है
अचानक बिंदासपन पर,
लग गयी पाबंदियां है
संतुलन सब में बिठाती ,
राजनीति सीखली है
सभी खुश रहते है मुझसे ,
चाल कुछ ऐसी चली है
बात पोलाइटली करती,
पॉलिटिशियन हो गयी हूँ
मैं गृहस्थन हो गयी हूँ
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '