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सोमवार, 6 नवंबर 2017


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madan mohan Baheti <baheti.mm@gmail.com>
Nov 1 (5 days ago)

to baheti.mm.t., baheti.mm.tara2, baheti.mm.tara4 
मैं गधे का गधा ही रहा 

मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
         गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 
मै तो दीपक सा बस टिमटिमाता रहा ,
        तुम शीतल,चटक चांदनी बन गयी 
मैं तो कड़वा,हठीला रहा नीम ही,
     जिसकी पत्ती ,निबोली में कड़वास है 
पेड़ चन्दन का तुम बन गयी हो प्रिये ,
  जिसके कण कण में खुशबू है उच्छवास है 
मैं तो पायल सा खाता रहा ठोकरें ,
    तुम कमर से लिपट ,करघनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
       गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 
मैं था गहरा कुवा,प्यास जिसको लगी ,
     खींच कर मुश्किलों से था पानी पिया 
तुम नदी सी बही ,नित निखरती गयी ,
     पाट चौड़ा हुआ ,सुख सभी को दिया 
मैं तो कांव कांव, कौवे सा करता रहा ,
            तुमने मोती चुगे ,हंसिनी हो गयी    
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
        गाय थी तुम प्रिये, शेरनी बन गयी 
मैं तो रोता रहा,बोझा ढोता रहा ,
         बाल सर के उड़े, मैंने उफ़ ना करी 
तुम उड़ाती रही,सारी 'इनकम' मेरी,
        और उड़ती रही,सज संवर,बन परी   
मैं फटे बांस सा ,बेसुरा  ही रहा,
          बांसुरी तुम मधुर रागिनी बन गयी
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी  
फ्यूज ऐसा अकल का उड़ाया मेरी ,
           सदा मुझको कन्फ्यूज करती रही 
मैं कठपुतली बन  नाचता ही रहा ,
          मनमुताबिक मुझे यूज करती रही
मैं तो कुढ़ता रहा और सिकुड़ता रहा ,
          तुम फूली,फली,हस्थिनी  बन गयी 
मैं गधा था गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी   
ऐसा टॉफी का चस्का लगाया मुझे,
        चाह में जिसकी ,मैं हो गया बावला 
अपना जादू चला ,तुमने ऐसा छला ,
           उम्र भर नाचता मैं रहा मनचला 
मैं तो भेली का गुड़ था,रहा चिपचिपा,
         रसभरी तुम ,मधुर चाशनी हो गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी हो गयी 
जाल में जुल्फ के ,ऐसे उलझे नयन ,
        मैं उलझता,उलझता उलझता गया 
ऐसा बाँधा मुझे,रूप के जाल में ,
        होके खुश बावरा ,मैं तो फंसता  गया 
उबली सी सब्जी सा ,मैं तो फीका रहा ,
          और प्रिये दाल तुम,माखनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
             गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 
         
मदन मोहन बाहेती'घोटू'


भाव नहीं देती है 

ऐसा है स्वभाव ,करती सबसे है मोलभाव ,
सब्जी हो या साड़ी सब ,सस्ती लेकर आती है 
मन में है उसके न दुराव न छुपाव कहीं,
सज के संवर  ,हाव भाव  दिखलाती  है 
रीझा पति पास जाय ,भाव नहीं देती है ,
मन में लगाव पर बहुत भाव खाती है  
रूप के गरूर में सरूर इतना आ जाता ,
पिया के जिया के भाव ,समझ नहीं पाती है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
नींद क्यों नहीं आती 

कभी चिंता पढाई की ,थी जो नींदें उड़ाती थी 
फंसे जब प्यार चक्कर में ,हमे ना नींद आती थी 
हुई शादी तो बीबीजी,हमें  अक्सर  जगाती थी 
करा बिजनेस तो चिंतायें ,हमे रातों सताती थी 
फ़िक्र बच्चो की शादी की,कभी परिवार का झंझट 
रात भर सो न पाते बस ,बदलते रहते हम करवट 
किन्तु अब इस बुढ़ापे में,नहीं जब कोई चिंतायें 
मगर फिर भी ,न जाने क्यों ,मुई ये नींद न आये 
न लेना कुछ भी ऊधो से ,न देना कुछ भी माधो का 
ठीक से सो नहीं पाते ,चैन गायब है रातों का 
जरा सी होती है आहट ,उचट ये नींद जाती है 
बदलते रहते हम करवट,बड़ा हमको सताती है 
एक दिन मिल गयी निंदिया ,तो हमने पूछा उससे यों 
बुढ़ापे में ,हमारे साथ,करती बदसलूकी क्यों 
लाख कोशिश हम करते ,बुलाते ,तुम न आती हो 
बड़ी हो बेरहम ,संगदिल,मेरे दिल को दुखाती हो
कहा ये निंदिया ने हंस कर,जवां थे तुम ,मैं आती थी 
भगा देते थे तुम मुझको,मैं यूं ही लौट जाती थी 
नहीं तब मेरी जरूरत थी ,तो था व्यवहार भी बदला 
है अब जरूरत ,मैं ना आकर ,ले रही तुमसे हूँ बदला 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

 
अब तो खिचड़ी खानेवाली उमर आ गयी 

आलस तन में बसा ,रहे ना अब फुर्तीले 
खाना वर्जित हुए ,सभी पकवान रसीले 
मीठा खाना मना,तले पर पाबंदी  है 
भूख न लगती,पाचनशक्ति भी मंदी है
खा दवाई की रोज गोलियां ,हम जीते है 
चाट पकोड़ी मना ,चाय फीकी पीते है 
दांत गिर गए ,चबा ठीक से ना पाते हम 
पुच्ची भर में बदल गया हो जैसे चुंबन 
यूं ही मन समझाने वाली उमर आ गयी 
अब तो खिचड़ी खानेवाली उमर आ गयी 
'आर्थराइटिस 'है घुटनो में रहती जकड़न 
थोड़ी सी मेहनत से बढ़ती दिल की धड़कन 
'डाइबिटीज 'के मारे सब अंग खफा हो गए 
मिलन और अवगुंठन के दिन ,दफा हो गए 
वो उस करवट हम इस करवट ,सो लेते है 
आई लव यू आई लव यू ,कह खुश हो लेते है 
कभी यहां पीड़ा है ,कभी वहां दुखता है 
फिर भी दिल का दीवानापन ,कब रुकता है 
अब तो बस ,सहलानेवाली  ,उमर आ गयी 
अब तो खिचड़ी खानेवाली ,उमर  आगयी 
 कहने,सुनने की क्षमता भी क्षीण हो चली 
अंत साफ़ दिखता पर आँखें धुंधली धुंधली 
छूटी मौज मस्तियाँ ,मोह माया ना छूटी 
देते रहते खुद को यूं ही तसल्ली ,झूठी 
कोसों दूर बुढ़ापा ,हम अब भी जवान है 
मन ही मन ,अंदर से रहते परेशान है 
बात बात पर अब हमको गुस्सा आता है 
बीती यादों में मन अक्सर खो जाता है 
यूं ही मन बहलानेवाली उमर आ गयी 
अब तो खिचड़ी खानेवाली ,उमर आ गयी 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 
दिल मगर दिल ही तो है 

हरएक सीने में धड़कता ,है छुपा बैठा कहीं,
चाह पूरी जब न होती,मसोसना भी पड़ता है 
कभी अनजाने ही जब ,जुड़ जाता ये है किसी से,
नहीं चाहते हुए उसको ,तोडना भी पड़ता  है 
कभी चोंट खाकर जब ,पीता है वो खूं के आंसू,
उसकी मासूमियत को ,कोसना भी पड़ता है 
कभी देख कर किसी को,जब मचल जाता है,
तो किसी के साथ उसको ,जोड़ना भी पड़ता है 
बात दिल की है ,कोई दिलदार कोई दिलपसंद,
तो कोई है दिलरुबाँ ,दिलचस्प है और दिलनशीं 
कोई दिलवर है कोई दिलसाज कोई दिलफरेब ,
दिल दीवाने को सुहाती है किसी की दिलकशी 
कोई होता संगदिल तो कोई होता दरियादिल ,
जब किसी पे आता तो देता ये मुश्किल ही तो है 
इसकी आशिक़ मिजाजी का ओर है ना छोर है,
कुछ भी हो,कैसा भी हो,ये दिल मगर दिल ही तो है 


मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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