अक्स
कुछ दिनों अक्सों से अपने ,मैंने की थी दोस्ती ,
बांटता अपने ग़मों को ,आईने से लिपट कर
देख मुझको गमजदा ,ग़मगीन होते अक्स थे ,
अक्स भी आंसू बहाते ,मुझको रोता देख कर
अक्स मेरे चिर परिचित ,दोस्त लगने लगे थे ,
मेरे ही मन के मुताबिक़ ,रहता उनका रूप था,
कोइ से भी आईने को देख कर लगता था ये ,
अक्स हँसते और रोते ,थे मेरा रुख देख कर
कल भरे तालाब में ,मैं था किसी को ढूढ़ता ,
टकटकी मुझ पर लगाए ,मेरा ही चेहरा दिखा ,
पर न जाने ,अँधेरे में ,गुम किधर वो हो गया ,
मुश्किलों में अक्स जाते है अकेला छोड़ कर
जैसे कि साया भी भरता दोस्ती का दम सदा,
साथ आता रोशनी के और जाता है चला ,
अच्छे दिन में साथ देते ,अक्स भरमाते हमें ,
छोड़ते हमको अकेला,अँधेरे में,रात भर
कांच के घर में खड़ा था,हर तरफ था आइना ,
अक्स देखे ,लगा लगने ,मेरे कितने दोस्त है,
वक़्त की एक कंकरी से ,टूटे सारे आईने ,
अकेले ही करना पड़ता ,सबको जीवन का सफर
मदन मोहन बाहेती'घोटू'