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मंगलवार, 14 जनवरी 2014

संक्रांति या क्रांति

                संक्रांति या क्रांति

सूर्य ने राशि बदल ली,आ गयी संक्रांति है
देश की इस राजनीति में भी आयी क्रांति है
नाम पर जनतंत्र के जो राज पुश्तेनी चला ,
हो रही अब धीरे धीरे ,दूर सारी   भ्रान्ति  है
           कर रहा महसूस खुद को,आदमी था जो ठगा
           ऋतू ने अंगड़ाई ली है ,बदलने  मौसम लगा
            हर तरफ फैली हुई आयी नज़र जब गंदगी ,
               हाथ में झाड़ू उठा ,बुहारने उसको लगा
बचपने से चाय जो बेचा करे था रेल में
आज खुल कर आ गया वो राजनीति खेल में
देश को  बंटने न देंगे ,अब धर्म के नाम पे,
भ्रष्टाचारी और लुटेरे ,जायेंगे अब जेल  में
               जब से अपनी शक्ति का ,उसको हुआ अहसास है
                आदमी जो आम था ,अब लगा होने ख़ास है
                क्रांति की ये लहर निश्चित ,अपना रंग दिखलायेगी ,
                हमारे भी दिन फिरेंगे ,हम को ये विश्वास है
सूर्य था जो दक्षिणायण ,उत्तरायण आयेगा
भीष्म सा षर-बिद्ध ,मेरा देश मुक्ती पायेगा
ध्वंस सारे दुशासन सुत ,युद्ध में हो जायेंगे ,
आस है ,विश्वास है,अब तो सुशासन आयेगा      
                  दे रहा है बदलता मौसम यही पैगाम है
                  खूब लूटा देश,उनको ,भुगतना अंजाम है
                  अब न कठपुतली ,मुखौटे ,चलायेगे देश को,
                   शीर्ष पर सत्ता के होगा ,आदमी जो आम है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू' 

सोमवार, 13 जनवरी 2014

सांप


              सांप

बहुत रौबीले ,कड़क ,दफ्तर में होते साहब है
घर में भीगी बिल्ली बन कर,रहते वो चुपचाप है
कितना टेड़ा मेडा चलता,फन उठा ,फुंफकारता ,
बिल में जब घुसता है  तो हो जाता सीधा सांप है

घोटू

पन्ना

               पन्ना
                   १
पन्ना पन्ना जुड़ता तो किताब बना करती है
पन्ना जड़ता ,अंगूठी ,नायाब  बना करती  है
कच्ची अमिया भी उबल कर,मसालों के साथ में,
आम का पन्ना ,बड़ा ही स्वाद बना करती है 
                    २
प्यार की अपनी बिरासत ,चाहता था सौंपना
भटकता संसार में,मैं रहा पागल अनमना
जिसको देखा,व्यस्त पाया ,अपने अपने स्वार्थ में ,
ढूँढता ही रह गया ,पर मिला ना अपनापना

 घोटू

रविवार, 12 जनवरी 2014

अब सौंप दिया इस जीवन का …

         अब सौंप दिया इस जीवन का …
                       पेरोडी
अब सौंप  दिया इस जीवन का ,सब भार तुम्हारे हाथो में
जब से डाला है वरमाला का  हार  तुम्हारे हाथो ने
मेरा निश्चय था एक यही, एक बार तुम्हे पा जाऊं मैं ,
आ जाएगा फिर इस घर का ,सब माल हमारे हाथों में
इस घर में रहूँ तो ऐसे रहूँ,कुछ काम धाम करना न पड़े ,
बर्तन हो ननद के हाथो मेऔर झाड़ू सास के हाथों में
जब जब भी मुझको जन्म मिले,तो इस घर की ही बहू बनूँ,
हो घर की तिजोरी की चाबी,हर बार हमारे हाथों में
जब तक तुम करते काम रहो,मैं मौज करू,आराम करू,
तुम पीछे से धक्का मारो,हो कार हमारे हाथों में
तुम में मुझ में है फर्क यही ,तुम नर हो और मैं नारी हूँ ,
तुम कठपुतली बन कर नाचो,हो तार तुम्हारे हाथो में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डिक्टेटर


                 डिक्टेटर

एक  साहब थे नामी
रोबीले व्यक्तित्व के स्वामी
शहर में साख थी
दफ्तर में धाक  थी
उनकी थी एक स्टेनोग्राफर
फुर्तीली,काम में तत्पर
सुन्दर,स्मार्ट और यंग थी
शरीर से उदार ,कपड़ों से तंग थी
हमेशा हंसती ,मुस्कराती थी
यस सर यस सर कह कर शर्माती थी
घंटो का काम ,मिनटों में कर लाती थी
साहब के मन भाती  थी
साहब डिक्टेशन देते थे ,रुक रुक कर
स्टेनो ,डिक्टेशन लेती थी ,झुक झुक कर
साहब की थी 'हाई प्रोफाइल'
स्टेनो के कपड़ों की थो 'लो प्रोफाइल ' 
और इसी स्टाइल में
धीरे धीरे वो फ़ाइल  हो गयी,
साहब के दिल की फ़ाइल में
उसकी नरमता और नम्रता ने
धीरे धीरे बुने कुछ ऐसे ताने बाने
असर कर गयी उसके नयनो की मार
साहब के मन में आया उससे शादी का विचार
और इतनी आज्ञाकारी बीबी की सोच
साहब ने एक दिन कर दिया प्रपोज
और स्टेनो ने भी 'नो'नहीं किया
कल तक थी पी ऐ ,अब हो गयी प्रिया
वक़्त की धूप छाँव 
कभी नाव पर गाड़ी थी,अब गाडी पर नाव
हमेशा यस सर यस सर कहनेवाली स्टेनो
सर के सर पर चढ़ कर ,कहती है नो नो
बढ़ गया है उसका इतना रुबाब
कि वो हो गयी है साहब की भी साहब
राम ही जाने ,साहब पर क्या गुजरती है
जिसे कभी वो डिक्टेट करते थे,
वो आज उन्हें डिक्टेट करती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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