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सोमवार, 19 अगस्त 2013

बुढापे में बहुत सुख दे रही ........

   बुढापे में बहुत सुख दे रही ........


    जवानी में भी जितना सुख नहीं  ,जिसने दिया मुझको,
     बुढापे में बहुत सुख दे रही ,बुढ़िया  ,मुझे  मेरी
 भले मन में उमंगें थी,और तन  में भी ताकत थी ,
मगर खाने कमाने में,बहुत हम व्यस्त रहते  थे
और पत्नी भी रहती व्यस्त ,घर के काम काजों में ,
रात होती थी तब तक ,दोनों ही हम पस्त रहते थे
         इधर मै थक के सो जाता ,उधर खर्राटे  भरती वो ,
         कभी ही चरमरा ,सुख देती थी,खटिया  मुझे मेरी
         जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको ,
          बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही बुढ़िया  मुझे मेरी
बहुत थोड़ी सी इनकम थी,बड़ा परिवार पलता था,
बड़ी ही मुश्किलों से,बच्चों को ,हमने पढ़ाया था
काट कर पेट अपना ,ध्यान रख कर उनकी सुविधा का,
बड़े होकर ,कमाए खूब ,इस काबिल बनाया  था
            तरक्की खूब कर बेटा हमारा ख्याल रखता है,
            बड़ी चिन्ता  से करती याद है,बिटिया मुझे मेरी
             जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
            बुढापे में में बहुत सुख दे रही ,बुढिया ,मुझे मेरी
आजकल मै हूँ,मेरी बीबी है ,फुर्सत में हम दोनों,
इस तरह हो गए है एक कि दोनों  अकेले  है
धूमते फिरते है मस्ती में ,रहते प्यार में डूबे ,
उमर आराम की ,चिंता न कुछ है ना झमेले है
                कभी तलती पकोड़ी है ,कभी फिर खीर और पूरी ,
                खिलाती ,प्रिय मेरा खाना ,बहुत बढ़िया ,मुझे डेली
                 जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
                 बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही , बुढ़िया ,मुझे मेरी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

रविवार, 18 अगस्त 2013

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा

कृष्ण ,कभी धरती पर आना 
और कहीं जाओ ना जाओ,पर गोवर्धन निश्चित जाना
वो गोवर्धन ,जिस पर्वत पर ,गोकुल का पशुधन चरता था
दूध ,दही से और मख्खन से ,ब्रज का हर एक घर भरता था
छुडा इंद्र की पूजा तुमने ,जिसकी  पूजा  करवाई थी
होकर कुपित इंद्र ने जिससे ,ब्रज पर आफत बरसाई थी
वो गोवर्धन ,निज उंगली पर,जिसको उठा लिया था तुमने
ब्रज वासी को जिसके नीचे ,बैठा ,बचा लिया था तुमने
देखोगे तुम ,इस युग में भी ,पूजा जाता है गोवर्धन
करते  है उसकी परिक्रमा,श्रद्धानत हो,कई भक्त जन
दूध सैकड़ों मन ,उसके मुख पर है लोग चढ़ाया करते
इतना गोरस ,व्यर्थ नालियों में है रोज बहाया  करते
देखोगे तुम,ये सब,शायद ,तुमको भी  अच्छा न लगेगा
इतना दूध,बहाना ऐसे ,गोधन का अपमान लगेगा
थोडा दूध,प्रतीक रूप में ,गोवर्धन पर चढ़ सकता है
बाकी दूध ,कुपोषित बच्चो का भी पोषण कर सकता है
अगर प्रेरणा ,तुम दे दोगे ,यह रिवाज़ सुधर जाएगा
मनो दूध,भूखे गरीब सब ,बालवृन्द को मिल जाएगा
पण्डे और पुजारी जितने भी है ,उनको तुम समझना
कृष्ण कभी धरती पर आना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लोहा और प्लास्टिक

       लोहा और प्लास्टिक

बड़ा है सूरमा लोहा ,लडाई में लड़ा करता
वो बंदूकों में ,तोपों में और टेंकों में लगा करता
कभी तलवार बनता है,कभी वो ढाल  बनता है
हमेशा जंग में वो जंगी सा हथियार बनता है
कभी लोहे के गोले  तोप से जब है दागने पड़ते
तो दुश्मन को भी लोहे के चने है चाबने  पड़ते
कौन लोहे से ले लोहा ,सामने सकता आ टिक है
मिला उत्तर हमें झट से कि वो केवल प्लास्टिक है
टेंक इससे भी बनते है ,मगर भर रखते पानी है
खेत में बन के पाइप ,सींचता,करता किसानी है
घरों में लोहे के पाइप ,तगारी बाल्टी और टब
कभी लोहे के बनते थे,प्लास्टिक से बने अब सब
हरेक रंग में ये रंग जाता ,गरम होता है गल जाता
इसे जिस रूप में ढालो ,ये उस सांचे में ढल जाता
कलम से ले के कंप्यूटर ,सभी में आपके संग है
इसे है जंग से नफरत ,न लग पाता इसे जंग है
प्लास्टिक शांति का प्रेमी ,सख्त है पर नरम दिल है
बजन में हल्का ,बोझा पर,बड़ा सहने के काबिल है
इसी की कुर्सियों में बैठना ,प्लेटों में खाना  है
दोस्तों आजकल तो सिर्फ प्लास्टिक का ज़माना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

हाट -बाज़ार

   हाट -बाज़ार

बहुत से मॉल में घूमे ,कई बाज़ार भी भटके
मगर हाटों की शौपिंग का ,मज़ा ही होता है हटके
बहुत सी सब्जियां और फल,और होता माल सब ताज़ा ,
धना मिर्ची  रुंगावन में,और होते दाम भी घटके
वो हल्ला ,रौनकें और शोरगुल भी अच्छा लगता है,
न मुश्किल कोई लेने में,पसंद की सब्जियां,छंट  के 
बड़ी मिलती तसल्ली है ,यहाँ पर बार्गेन करके ,
वो डंडी मारना मालन का और उसकी अदा ,झटके
जब होने रात लगती है और छटती भीड़ है सारी ,
तो औने पोने रह जाते ,सभी के दाम है घट के
सभी चीजे ,बड़ी सस्ती ,यहाँ पर एक संग मिलती ,
जो जी चाहे,खरीदो तुम,बिना मुश्किल और झंझट के

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आजकल थकने लगे है

          आजकल थकने लगे है

आजकल थकने लगे है
लगता है पकने लगे है
जरा सा भी चल लिए तो,
दुखने अब टखने लगे है
कृष्णपक्ष के चाँद जैसे ,
दिनोदिन   घटने लगे है
विचारों में खोये गुमसुम,
छतों को तकने लगे है 
नींद में भी जाने क्या क्या,
आजकल बकने लगे है
खोखली सी हंसी हंस कर,
गमो को ढकने लगे है
स्वाद अब तो बुढापे का ,
रोज ही चखने  लगे है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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