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गुरुवार, 27 जून 2013

बुढ़ापे की पीड़ा-चार मुक्तक


        
          बुढ़ापे  की पीड़ा -चार मुक्तक
                       1
क्या गज़ब का हुस्न था,वो शोख थी,झक्कास थी
धधकती ज्वालामुखी के बीच जैसे आग   थी
देख कर ये,कढ़ी बासी भी उबलने  लग गयी,
मन मचलने लग गया,नज़रें हुई  गुस्ताख़ थी
                        2
हम पसीना पसीना थे,हसीना को देख कर
पास आई ,टिशू पेपर ,दिया हमको ,फेंक कर
बोली अंकल,यूं ही तुम क्यों,पानी पानी हो रहे ,
किसी आंटीजी को ताड़ो,उमर अपनी देख कर
                        3
  जवानी की यादें प्यारी,अब भी है मन मे बसी
  बड़े ही थे दिन सुहाने,और रातें थी  हसीं
  बुढ़ापे ने मगर आकर,सब कबाड़ा कर दिया ,
  करना चाहें,कर न पाये,हाय कैसी  बेबसी
                     4
घिरते तो बादल बहुत हैं,पर बरस पाते नहीं
उमर का एसा असर है ,खड़े हो पाते नहीं
देखकर स्विमिंगपूल को,मन मे उठती है लहर,  
डुबकियाँ मारे और तैरें,कुछ भी कर पाते नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

दास्ताने बुढ़ापा

         
           दास्ताने  बुढ़ापा 
  बस यूं ही बेकार मे और खामखाँ
  रहता हूँ मै मौन ,गुमसुम,परेशां 
  मुश्किलें ही मुश्किलें है हर तरफ,
  बताओ दिन भर अकेला करूँ क्या 
  वक़्त काटे से मेरा कटता नहीं,
  कब तलक अखबार,बैठूँ,चाटता 
   डाक्टर ने खाने पीने पे मेरे ,
    लगा दी है ढेर सी पाबंदियाँ  
   पसंदीदा कुछ भी का सकता नहीं,
    दवाई की गोलियां है  नाश्ता 
    टी.वी, के चेनल बदलता मै रहूँ,
    हाथ मे रिमोट का ले झुनझुना 
   एक जैसे सीरियल,किस्से वही ,
   वही खबरें,हर जगह और हर दफ़ा
   नींद भी आती नहीं है ठीक से ,
    रात भर करवट रहूँ मै बदलता 
   तन बदन मे ,कभी दिल मे दर्द है,
   नहीं थमता ,मुश्किलों का सिलसिला 
   जो लिखा है मुकद्दर मे हो रहा ,
   करूँ किससे शिकवे ,मै किससे गिला
   मन कहीं भी नहीं लगता ,क्या करूँ,
   खफा खुद से रहता हूँ मै गमजदा 
   'घोटू' लानत,उम्र के इस दौर पर,
    बुढ़ापे मे ,ये सभी की दास्ताँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

  

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बुधवार, 26 जून 2013

हाले चमन 

था खूबसूरत ,खुशनुमा,खुशहाल जो चमन ,
भंवरों ने रस चुरा चुरा ,बदनाम कर दिया 
कुछ उल्लुओं ने डालों पे डेरे बसा लिए,
कुछ चील कव्वों ने भी परेशान कर दिया 
था खूबसूरत,मखमली जो लॉन हरा सा ,
पीला सा पड गया है खर पतवार उग गये ,
माली यहाँ के बेखबर ,खटिया पे सो रहे ,
गुलजार गुलिस्ताँ को बियाबान कर दिया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' -


Re: नामाक्षर गण्यते



Exellent and nice tbougbt
Sent from Samsung Mobile


madan mohan Baheti <baheti.mm@gmail.com> wrote:


             नामाक्षर  गण्यते
           
 दुशयंत  ने,शकुंतला से गंधर्व शादी रचाई 
उसे  भोगा ,और,
अपने नाम लिखी एक अंगूठी पहनाई 
और राजधानी चला गया,यह कह कर
'नामाक्षर गण्यते' याने,
मेरे नाम के तुम गिनना अक्षर 
इस बीच मै आऊँगा  
और तुम्हें महलों मे ले जाऊंगा 
गलती से शकुंतला की अंगूठी खो गई 
और कई दिनो तक,जब दुष्यंत आया नहीं 
तो शकुंतला गई राज दरबार 
पर दुष्यंत ने पहचानने से कर दिया इंकार 
 जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आ जाता है  
क्योंकि ,आज की सत्ता ,दुशयंत सी है,
जो चुनाव के समय,
शकुंतला सी भोली जनता पर,
प्रेम का प्रदर्शन कर ,
सत्ता का सुख भोग लेती  है 
और फिर उसे कभी अंगूठा ,
या आश्वासन की अंगूठी पहना देती  है 
साड़ेचार अक्षरों का नाम लिखा होता है जिस पर 
सत्ता सुख की मछली ,
उस अंगूठी को निगल जाती है ,पर 
और गुहार करती ,जनता,जब राजदरबार जाती है 
पहचानी भी नहीं जाती है 
हाँ,नामाक्षर गण्यते का वादा निभाया जाता  है 
उसके नाम का एक एक अक्षर,
एक एक वर्ष सा हो जाता है 
और तब कहीं साड़े चार साल बाद 
उसे आती है जनता की याद 
क्योंकि पांचवें साल मे,
 आने वाला होता है चुनाव  
और सत्ताधारियों को याद आने लगता है,
जनता के प्रति अपना  लगाव 
जब भी चुनाव नजदीक आता है 
मुझे ये किस्सा याद आता है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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