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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा

आज अपने, सुप्त सपने, फिर जगाने जा रहा,
जिन्दगी को, एक हसीं, अब मोड़ देने जा रहा ।

चाहता हूँ, पतझड़ों में, चंद हरियाली भरुँ,
बंजरों में, आज फिर एक,बीज बोने जा रहा ।

देख लेंगे, तेज कितना, टिमटिमाते "दीप" में है,
सख्त दरख्तों, में भी कोंपल, फिर फुटाने जा रहा ।

आए हैं वो, आज फिर से,बनके एक हमदर्द-सा,
जब मैं सारे, दर्द को,दिल से भुलाने जा रहा ।

पत्थरों को, घिस कर अब, आग जलती है नहीं,
आग जो, दिल में लगी, उसे अब बुझाने जा रहा ।

देखा है खुद, गैरों को, अपनो के साये में ढले,
फूलों से अब, काँटों को चुन-चुन हटाने जा रहा ।

हो गया अब, आँसुओं से, मुँह धोने का रसम,
जिंदगी को, जीतकर अब, जश्न मनाने जा रहा ।

बस हुआ, सपनों में गिरना, गिरते-गिरते दौड़ना,
अपने साये, पे अब अपना, हक जमाने जा रहा ।

सोच में हैं, वो कि हमसे, क्या कहे क्या न कहे,
मैं हूँ कि, उनकी हरेक, बातें भुलाने जा रहा ।

आँहे भरते, जीने का अब,वक्त पूरा हो चुका,
जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा ।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

बूढों का हो कैसा बसंत?

बूढों का हो कैसा बसंत?
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पीला रंग सरसों फूल गयी
मधु देना अब ऋतू भूल गयी
सब इच्छाएं प्रतिकूल गयी
        यौवन का जैसे हुआ अंत
        बूढों का हो कैसा बसंत
गलबाहें क्या हो,झुकी कमर
चल चितवन, धुंधली हुई नज़र
क्या रस विलास अब गयी उमर
         लग गया सभी पर प्रतिबन्ध
          बूढों का हो कैसा बसंत
था चहक रहा जो भरा नीड़
संग छोड़ गए सब,बसी पीड़
धुंधली यादें,मन है अधीर
          है सभी समस्यायें दुरंत
          बूढों का हो कैसा बसंत
मन यौवन सा मदहोश नहीं
बिजली भर दे वो जोश नहीं
संयम है पर संतोष नहीं
        मन है मलंग,तन हुआ संत
         बूढों का हो कैसा बसंत

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



सरस्वती वंदना

बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा दिवस पर
सभी साहित्य प्रेमियों को घोटू की शुभकामनायें
माँ सरस्वती आपके सृजन को पुष्पित और पल्लवित करे
इसी शुभकामना के साथ सरस्वती वंदना के दो छंद

सरस्वती वंदना
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वीनापाणी, तुम्हारी वीणा ,मुझको स्वर दे
नव जीवन ,उत्साह नया माँ मुझ में भर दे
पथ सुनसान ,भटकता सा राही हूँ मै,
ज्योति तुम्हारी निर्गम पथ ,ज्योतिर्मय करदे
                        २
मात,मेरी प्रेरणा बन,प्रेम दो ,नव ज्योति दो ,
मै तुम्हारा स्वर बनू,हँसता रहूँ ,गाता रहूँ
प्यार दो ,झंकार दो ,ओ देवी स्वर की सुरसरी
तान दो ,हर बार मै ,हर लय नयी ,लाता रहूँ
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

हे ज्ञान की देवा शारदे

(मेरे ब्लॉग "मेरी कविता" पर ये सौवीं पोस्ट माता शारदे को समर्पित है । मुझे इस बात से अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आज के ही शुभ दिन यह सुअवसर आया है जिस दिन सारा देश माँ की पूजा-अर्चना में लीन होगा ।)
हे ज्ञान की देवी शारदे,
इस अज्ञ जीवन को तार दे,
तम अज्ञान का दूर कर दे माँ,
तू प्रत्यय का उपहार दे ।

तू सर्वज्ञाता माँ वीणापाणि,
मैं जड़ मूरख ओ हंसवाहिनी,
चेतन कर दे,जड़ता हर ले,
मैं भृत्य तेरा हे विद्यादायिनी ।

जग को भी सीखलाना माँ,
सत्य का पाठ पढ़ाना माँ,
जो अकिञ्चन ज्ञान से भटके,
मति का दीप जलाना माँ ।

मैं दर पे तेरे आया माँ,
श्रद्धा सुमन भी लाया माँ,
सुध मेरी बस लेती रहना,
तेरे स्मरण से मन हर्षाया माँ ।

माँ कलम मेरी न थमने देना,
भावों को न जमने देना,
न लेखन में अकुलाऊँ माँ,
काव्य का धार बस बहने देना ।

माँ विनती मेरी स्वीकार कर,
मुझ मूरख का उद्धार कर,
कृपा-दृष्टि रखना सदैव,
निज शरण में अंगीकार कर ।

जय माँ शारदे ।

ए बसंत तेरे आने से

ए बसंत तेरे आने से
नाच रहा है उपवन
गा रहा है तन मन
ए बसंत तेरे आने से ।

खेतों में लहराती सरसों
झूम रही है अब तो
मानो प्रभात में जग रही है
ए बसंत तेरे आने से ।

चिड़िया भी चहकती है
भोर में गीत गाती है
घर में खुशियाँ आती हैं
ए बसंत तेरे आने से ।

खिल गयी सरसों
बिखर गयी खूशबू
मनमोहक हो गया नज़ारा
ए बसंत तेरे आने से ।
,,,"दीप्ति शर्मा "

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

जैसी निगाहें वैसा शमाँ

जैसी निगाहें वैसा शमाँ,
निगाहों के अनुरुप बदलता जहाँ,
गमगीन होके देखो तो दुनिया उदासीन,
प्यार से देखो तो सबकुछ खुशनुमा ।

कोई कहता आधा है खाली,
कोई कहता है आधा भरा,
नजरिये का फेर है ये सब,
नजरिये पे निर्भर है अपनी धरा ।

सोच अच्छी हो तो होगे सफल,
गलत सोच डुबो देगा नाव,
सकारात्मता जीवन को देती है राह,
हो तपते हुए मौसम में जैसे छाँव ।

एहसास तेरा

ढुँढती है नजरें तुझे हर दिन और हर रात,
आईने में नजरें अब तो तुझे तलाशती है ।

आहट तेरी करार है लेती अब तो हर हर एक पल,
भँवरों की गुँजन भी धुन तेरा सुनाती है ।

सपने तेरे मदहोश हैं करते अब निद्रा में हर रात,
जागती हुई आँखे भी ख्वाब तेरा दिखाती है ।

छुवन तेरा महसूस है करता ये मन हर लम्हा,
हवाओं की सरसराहट एहसास तेरा कराती है ।

खुशबू तेरी महकाती है अब बगिया में हरदम,
मादकता फूलों की भी याद तेरा दिलाती है ।

मात-पिता के चरणों में


मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम,
मात-पिता के चरण की माटी सौ चन्दन समान ।

मात-पिता की निःस्वार्थ सेवा, शत यज्ञ का फल दे,
मात-पिता पावन कर देते, गंगा का जल से ।

मात-पिता के स्नेह की छाया ताप में दे आराम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता गुरु से भी बढ़कर, मात-पिता भगवान,
मात-पिता के संस्कारों से बनता कोई महान ।

मात-पिता की दया से मिलते हैं इस जग में नाम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता के दरश से मिलते सुख, शक्ति प्रबल,
मात-पिता के हस्त जो सर पे सब कर्म लगे सरल ।

मात-पिता गुण-धाम हैं इनका क्या मैं करुँ गुणगान,
मात पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

बूढा होता प्रजातंत्र

बूढा होता प्रजातंत्र
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  पेंसठ साल का प्रजातंत्र
और बासठ  का  गणतंत्र
दोनों की ही उमर सठिया गयी है
और सहारे के लिए,हाथों में,लाठियां आ गयी है
मगर कुछ नेताओं ने,
सत्ता को बना लिया अपनी बपौती है
इसलिए लाठी,जो सहारे के लिए होती है
उसका उपयोग,हथियारों की तरह करवाने लगे है
और विरोधियों पर लाठियां भंजवाने लगे है
विद्रोह की आहट से भी इतना डरते है
की रात के दो बजे,सोती हुई महिलाओं पर,
लाठियां चलवाने लगते है
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे है
कुर्सी पर ही चिपक कर ,रहने के मंसूबें है
पर बूढ़े है,इसलिए आँखे कमजोर हो गयी लगती है
इसलिए विद्रोह की आग भी नहीं दिखती है
सत्ता के मद में पगलाये हुए है
शतुरमुर्ग की तरह,रेत में मुंह छुपाये हुए है
जनता की लाठी जब चलेगी
तो वो इनको उखाड़ फेंकेगी
फिर भी ये लाठियां चला रहे है
सत्ता न छिन जाये,घबरा रहें है
जनता त्रस्त है
पर अच्छे दिनों की आशा में आश्वस्त है
पर भ्रष्टाचार में डूबा सारा तंत्र है
बूढा होता हुआ गणतंत्र है
  
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

मात शारदे

मात  शारदे
मुझे प्यार दे
वीणा वादिनी,
नव बहार दे
मन वीणा को
झंकृत करदे
हंस वाहिनी
एसा वर दे
सत पथ अमृत
मन में भर दे
बुद्धि दायिनी
नव विचार दे
मात शारदे
ज्ञान सुधा की
घूँट पिलादे
सुप्त भाव का ,
जलज खिलादे
गयी चेतना,
फिर से ला दे
दाग मग नैया
लगा पार दे
मात शारदे
भटक रहा मै
दर दर ओ माँ
नव प्रकाश दे
तम हर ओ माँ
नव ले दे तू
नव स्वर ओ माँ
ज्ञान सुरसरी
प्रीत धार दे
मात शारदे
मुझे प्यार दे
वीणा वादिनी
नव बहार दे



बूढ़ा मेरा कंत हो गया

मन बसंत था कल तक जो अब संत हो गया
अभिलाषा, इच्छाओ का बस अंत हो गया
जब से मेरी प्राण प्रिया ने करी ठिठोली
राम करू क्या बूढ़ा मेरा कंत हो गया

बुधवार, 25 जनवरी 2012

सबसे विराट गणतंत्र हमारा


सच है कि हर जन-गन-मन आज प्याज के आँसू रोता है,
पर ये भी सच कि अपना भारत सूरज बन चमकता है।

नेता,अफसर शासक में कुछ सच है कि हैं भ्रष्टाचारी,
कठिन डगर में लेकिन फिर भी ऊँची हुई मसाल हमारी।

सौ कोटि हम हिन्दुस्तानी सौ टुकड़ों में रहते हैं,
पर सौ कोटि हम एक ही बनके दुनिया का ताज पहनते हैं।

नई दुल्हन को बिठाये हुए लुट जाए कहार की ज्यों पालकी,
चंद लोगों ने कर रखी है आज हालत त्यों हिन्दुस्तान की।

सामरिक,आर्थिक,नैतिक बल में भारत जैसा कोई नहीं है,
धर्मनिरपेक्षता, एकता, अखंडता, मानवता में हमसा कोई नहीं है।

खेल जगत में उदीयमान हिन्द भारत भाग्य विधाता है,
हर क्षेत्र में मजबूत ये धरिनी, महिमा हर कोई गाता है।

पूरब से लेके पश्चिम तक है साख फैलाये जनतंत्र हमारा,
हर एक देश ने माना लोहा, है सबसे विराट गणतंत्र हमारा।

( इस गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।
हम सबको एक भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए।
मेरा देश महान। )

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

शबनमी ये रात

बड़ी ही शबनमी-सी है ये रात,
क्यों न मचले हृदय के जज्बात,
आशा में देवी निद्रा से हसीन मुलाकात,
आँखों ही आँखों में ज्यों हो जाए बात ।

करवटों में बीते ये रात की गहराईयाँ,
एक अकेले हम और जाने कितनी परछाईयाँ,
पल-पल का सफर दुष्कर उसपे ये तनहाईयाँ,
आगोश में ले लूँ आकाश, भर लूँ अँगड़ाईयाँ ।

सरगमीं ये कैसी दिल में कैसी ये हलचल,
धड़कनों की रफ्तार यूँ बढ़ती है पल-पल,
आकस्मिक अस्थिरता पर मन है अविचल,
शबनमी ये रात है या कोई प्यारी गज़ल ।

ये झुकी हुई पलकें

ये झुकी हुई पलकें,
न जाने क्या कहती है;
लबों की तरह खामोश है,
शायद उनमे कुछ राज है ।

कहती है शायद
रहने दो राज को राज,
आवरण इतनी जल्द न हटाओ,
शायद कुछ खोने का डर भी है इनमे,
कभी लगता कहती है पास आओ ।

ये झुकी हुई पलकें,
हैं सागर को समेटे,
रंजोगम बयाँ करती,
पर फिर भी झुकी रहती ।

हया की चादर में लिपटी,
स्याह की धार में बँधी,
न जाने कितने भेद छुपाये,
तेरी ये झुकी हुई पलकें ।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

शुभकामना

आज नेताजी जयंती के साथ-साथ मेरे अनुज रघु का भी जन्मदिन है । नेताजी को शत-शत नमन और अनुज को शुभकामना स्वरूप ये छोटी-सी रचना ।

'ज'ग के उजियारे बनो,
'न'मन जिसे खुद सफलता करे;
'म'न में सबके मूर्ति हो जिसकी,
'दि'ल से सब जिसकी पूजा करे;
'न'त कर दे जो हर दुश्मन को,
'मु'श्किल में भी साहसी बन;
'बा'त से सबको जीत ले हरदम,
'र'घु तू बिल्कुल वैसा बन;
'क'ल्पना नहीं ये दुआ है मेरी,
'हो' न हो तू वैसा बन ।

(सभी पंक्तियों का पहला अक्षर मिलाने पर-"जनम दिन मुबारक हो" ।)

जलेबी-अतुकांत कविता

    जलेबी-अतुकांत कविता
    -----------------------------
छंद, स्वच्छंद नहीं होते,
मात्राओं  के बंधन में बंधे हुए ,
तुक की तहजीब से मर्यादित
जैसे रस भरी बून्दियों की तरह,
शब्दों को बाँध कर,
मोतीचूर के लड्डू बनाये गये हो,
और लड्डुओं का गोल गोल होना ,
स्वाभाविक और पारंपरिक  है
पर जब शब्द,
अपने स्वाभाविक वेग से,
उन्मुक्त होकर,
ह्रदय से निकलते है,
तो जलेबी की तरह,
भावनाओं की कढ़ाई में तल कर,
प्रेम की चासनी में डूबे,
रससिक्त और स्वादिष्ट हो जाते है,
और उन पर ,
छंदों की तरह,
आकृति का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता,
और एक सा स्वाद होने के बावजूद भी,
हर जलेबी का,
अपना एक स्वतंत्र  मुखड़ा होता है,
आधुनिक,अतुकांत कविताओं की तरह

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

रविवार, 22 जनवरी 2012

हमें माफ़ करना नेताजी

हमें माफ़ करना नेताजी

हम भारत माता के बेटे,देश हमारा अपना है
भ्रष्टाचार मुक्तं हो भारत,यही हमारा सपना है
पिछली बार आप जब हमसे,बोट मांगने आये थे
कई किये थे हमसे वादे,क्या क्या सपन दिखाए थे
दूर गरीबी कर देंगे हम,कम कर देंगे मंहगाई
लेकिन सत्ता में आने पर,तुमने शकल न दिखलाई
मंहगाई दो गुना बढ़ गयी,सब चीजों के दाम बढे
भ्रष्टाचार और घोटाले,हुए देश में बड़े बड़े
मंहगाई पर रोक लगाने,जब जब जनता चिल्लाई
'नहीं कोई जादू की छड़ी है,दूर करे जो मंहगाई'
 एसा कह कर ,तुमने तो बस,अपना पल्ला झाड़ दिया
 आन्दोलन जब किया ,रात को,तुमने छुप कर वार किया
जनता की जायज मागों के,तुम विरोध में अड़े हुए
अरे  तुम्हारे कई मंत्री ,हैं जेलों में  पड़े  हुए
सत्याग्रह  और आन्दोलन में,बाधा सदा लगाये हो
धिक् है तुमको,अब किस मुंह से,बोट माँगने आये हो
हमें माफ़ करना नेताजी,तुमको बोट नहीं देंगे
किसी साफ़ सुथरी छवि वाले ,को हम संसद भेजेंगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 21 जनवरी 2012

दिल से कवि हूँ

संसार के पटल में, मैं एक छवि हूँ, पेशे से अभियंता और दिल से कवि हूँ | भावना के उदगार को, व्यक्त ही तो करता हूँ, हृदय के जज्बात को, प्रकट ही तो करता हूँ; बस एक "दीप" हूँ, कब कहा रवि हूँ ; पेशे से अभियंता और दिल से कवि हूँ | उन्मुक्त साहित्याकाश में, बस घुमा करता हूँ, काव्य पढता-रचता हूँ और झुमा करता हूँ; कोशिश होती लिखने की, शब्दों का बढई हूँ, पेशे से अभियंता और दिल से कवि हूँ |

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

उंगलियाँ

         उंगलियाँ
        -----------
अंगूठा बस दिखाने  के काम का,
                             काम में पर बहुत आती उंगलियाँ
बालपन में थाम उंगली बढों की,
                             खड़ा कर चलना सिखाती  उंगलियाँ
जवानी  में पकड़ उंगली,पहुंचे तक,
                               पहुँचने की   राह  दिखाती उंगलियाँ
पहन कर के सगाई की अंगूठी,
                                 प्यार बंधन में बंधाती उंगलियाँ    
बाद शादी,बीबियों के इशारों,
                                 पर पति को  है  नचाती  उंगलियाँ
बीबियों की उँगलियों में जादू है,
                                 चटपटा  खाना बनाती उँगलियाँ
स्वाद की मारी हमारी जीभ है,
                                 जी न भरता, चाट जाती उंगलियाँ
चार मौसम,तीन महीने हर एक के,
                                 बरस पूरा है दिखाती उंगलियाँ
बड़ी छोटी,सभी मिल कर साथ है,
                                  एकता हमको सिखाती उंगलियाँ
बंध गयी तो एक मुट्ठी बन गयी,
                                     चपत मिल कर है  लगाती  उंगलियाँ
   आत्म गर्वित पडोसी है अंगूठा,
                                      दूरियां  उससे  बनाती   उंगलियाँ
कुछ उठाने की अगर जरुरत पड़े,
                                      अंगूठे को साथ लाती   उंगलियाँ
  उंगली टेड़ी करने से घी निकलता,
                                      पाठ जीवन का सिखाती  उंगलियाँ
एक उंगली गर किसी को दिखाओ,
                                      तीन है तुमको दिखाती उंगलियाँ
चार उंगली ,चार दिन की जिंदगी,
                                       याद हरदम है  दिलाती उंगलियाँ


मदन मोहन बाहेती'घोटू'



       




       

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

सोना तो सोना ही रहेगा


वक़्त की मार से
काला पड़ गया
मिटटी में दबा हुआ
लोहे का टुकडा
सदा सोचता था
कोई उसे मिटटी से निकाले
झाड पोंछ कर फिर से
काम आने लायक बना दे
किस्मत ने
उसे चमकते सोने का
साथ दे दिया
सोने का साथ मिलते ही
लोहा चमकने लगा
भ्रमित हो गया
अपने को
सोना समझने लगा
सपनों की
दुनिया में खोने लगा
राह से भटकने लगा  
निरंतर सोने का सानिध्य
चाहने लगा
भूल गया था
सैकड़ों हथोड़े खाया हुआ
कई बार तपाया गया
लोहे का टुकडा था
सोने के साथ कितना भी
चमक जाए 
लोहा ही रहेगा
एक दिन उसने सुन लिया
कोई कह रहा था
लोहा सोने के साथ
क्या कर रहा
तुरंत उसे याद आया
वो मात्र लोहे का टुकडा था
सोना तो सोना ही रहेगा
निरंतर चमकता रहेगा
जिसे के भी साथ रहेगा
उसकी कीमत बढ़ाएगा
सोच विचार के बाद
विनम्रता से सोने से बोला
मुझे भूलना नहीं
निरंतर साथ निभाना
दूर से ही सही
अपनी चमक से
नहलाते रहना 
ज़िन्दगी के हथोडों से
बचने का तरीका बताते रहना
कभी पथ से ना डिगने देना
मंजिल तक पहुंचाना
फिर से 
किसी लायक बन कर
किसी के काम आऊँ
ऐसी हिम्मत देते रहना 
अपना स्नेह बनाए
रखना
19-01-2012
65-65-01-12

न हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा तु इन्सान की औलाद है सैकुलर शैतान बनेगा

JAGO HINDU JAGO: जनरल VK Singh ji बचा सकते हो तो बचा लो हमें व हमार...: 1985 में अलकायदा की स्थापना ने बाद बाकी सारी दुनिया की तरह भारत में भी मुस्लिम जिहादियों को नये सिरे से संगठित होने का मौका मिला । जिसका प...

आठवीं मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता

  आठवीं मंजिल से  भोंकता हुआ कुत्ता
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गली में पट्टा
पर मन में,
स्वच्छंद विचरने की विकलता
रेलिंग से बंधा हुआ,
आठवीं  मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता
मन में छटपटाहट है
या शायद मालिकिन के आने की आहट है
दर्द है या ख़ुशी है
या कोई पीड़ा छुपी है
या जमीन का निरीह प्राणी ,
इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर चौंक रहा है
और नीचे वालों को देख कर भोंक रहा है
सुबह ही तो मालकिन ने टहलाया था
अपने नरम नरम हाथों से,
उसके रेशमी बालों को सहलाया था
और खिलाये थे दूध और बिस्कुट
तो चुपचाप उसी प्रेम से अभिभूत
अपनी मालकिन को निहार रहा था
जाने क्या क्या विचार रहा था
प्यार  के उन चंद पलों ने,
उसे बना दिया है उम्र भर का गुलाम
पूंछ हिलाता रहता है ,सुबह शाम
क्या होगी उसकी मानसिकता
किसी अनजान को देख कर झपटता
आठवीं मंजिल से भोंकता हुआ कुत्ता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

वीरानियों में है कहीं आबाद कोई 
खामोशियों से दे रहा आवाज़ कोई 

हाँ मर गया दिल और दिल की ख्वाइशें
मुझमे मगर जिंदा रहा अहसास कोई 

टहलीं सड़क पर रात भर रानाइयां यूं
निकला बदन पर ओढ़ कर आकाश कोई

फिर ताजदारों से बगावत कर उठा दिल
दिल पर हुकुमत कर रहा बेताज कोई

फिर से दिल में ख्वाहिशें उगने लगी हैं
आँखों ने मेरी फिर से देखा ख्वाब कोई .......



रचनाकार :- कवि पंकज अंगार

ललितपुर, ऊ.प्र.)

परी मेरी अब सोयेगी


रात ये कितनी बाकि है,
पुछ रहा हूँ तारों से;
पवन सुखद बनाने को,
अब कहता हूँ बहारों से ।

चाँद को ही बुलाया है,
निद्रासन मंगवाया है;
परी मेरी अब सोयेगी,
भँवरों से लोरी गवाया है ।

डैडी की सुन्दर गुड़िया है,
मम्मी की जान की पुड़िया है;
क्यों रात को पहरा देती है,
ज्यों सबकी दादी बुढ़िया है ।

स्वयं पुष्पराज ही आयेंगे,
खुशबू मधुर फैलायेंगे;
निद्रादेवी संग चाकर लाकर,
मिल गोद में सब सुलायेंगे ।

परी मेरी न रोयेगी,
परी मेरी अब सोयेगी ।

बुधवार, 18 जनवरी 2012

मै

       मै
     -----
कभी नदिया की तरह कल कल बहता हूँ
कभी सागर की लहरों सा उछालें भरता हूँ
कभी बादल की तरह आवारा  भटकता हूँ
कभी बारिश की तरह रिम झिम बरसता हूँ
कभी भंवरों की तरह गीत गुनगुनाता हूँ
कभी तितली की तरह फूलों पे मंडराता हूँ
कभी फूलों की तरह खिलता हूँ,महकता हूँ
कभी पंछी की तरह उड़ता हूँ,चहकता हूँ
कभी तारों की तरह टूट टूट जाता हूँ
कभी पानी के बुलबुलों सा फूट जाता हूँ
कभी सूरज की तरह तेज मै चमकता हूँ
कभी चंदा की तरह घटता और बढ़ता हूँ
मगर ये बात मै बिलकुल न समझ पाता हूँ
मै कौन हूँ,क्या हूँ और क्या चाहता हूँ

मदन मोहन बाहेती;घोटू;

बेटी का मेल

ड़ैड़ी,
इस बार टूर से लौटते वक्त
भले ही गिफ्ट मत लाना
पर इस मेल को पढ़ कर
यह वादा जरुर करना कि
मेरी इन सभी बातों को पूरा करेंगे
पहली बात
आप मेरा नाम उस स्कूल मे लिखायेंगे
जहां बहुत ज्यादा होम वर्क नही दिया जाता हो
और बहुत ज्यादा मार्क्स लाने के लिये
बच्चों को प्रेस न किया जाता हो


सच पापा ज्यादा ये ज्यादा मार्क्स लाने की टेंसन में
मै स्कूल आवर को ईटरटेन नही कर पाती
और पापा स्कूल घर से ज्यादा दूर भी नहो
क्योंकि जरा सी देर होने पर मम्मी परेसान होने लगती हैं
कि कहीं मेरे साथ कोई हादसा तो नही हो गया।
इसके अलावा ड़ैड़ी
अपना नया मकान उस जगह लेना
जहां पड़ोस के अंकल
अंकल जैसे ही हों
न कि बात करते करते गाल और पीठ छूने की कोशिश करते हों


और पापा अगल बगल के भइया लोग भी ऐसे न हों
जो मम्मी को सामने तो आंटी या भाभी जी कहते हों
और पीठ पीछे गंदी गंदी बातें कहते हों
डैडी एक बात और
मेरा स्कूल मे कोई भी ब्वाय फ्रेंड नही है
मुझे सभी लड़के खराब लगते हैं
वे अभी से सिगरेट और बियर पीते हैं
और गंदी गंदी बातें भी करते हैं
मै तो उन सबसे दूर रहती हूं


मेरा तो बस एक दोस्त है
पर डैडी वह बहुत सीधा है
ज्यादातर चुप ही रहता है
डसके ड़ैडी किसी औरत के साथ घूमते रहते हैं
और उसकी मम्मी नेट पर पता नही किससे किससे
चैट करती रहती है
यह सब उसे अच्छा नही लगता
पर वह छोटा है इसी लिये कुछ नही कह सकता |


पर मेरे प्यारे डैडी आपतो ऐसे नही है।
और मम्मी भी ऐसी नही हैं
पर आजकल मम्मी को भी नेट पे चैटिंग का शौक लग रहा है
यह मुझे भी अच्छा नही लगता
पापा आप उन्हे अपनी तरह से समझा दीजियेगा
मै उनकी शिकायत नही कर रही
पर मम्मी को क्या पता कि अक्सर जेंट्स लोग ही
फेमनिन नेम से आई डी खोल कर औरतों से
चैट करते रहते हैं
डैडी आपतो बहुत अच्छे हैं और यह सब जानते भी है।


डै़डी आप नया मकान उस जगह लीजियेगा
जंहां रोज रोज बम न फटते हों
और लोग एक दूसरे से मिलजुल कर रहते हों
और मेरा स्कूल भी घर के पास हो
ताकि देर होने पर मम्मी चिंता न रहे
ड़ैड़ी अब मै चाह कर भी छोटी मिडी नही पहनती
लोग मुझे कम मेरी टांगो को ज्यादा देखते हैं |


ड़ैड़ी मुझे नही मालुम आप यह मेल पढ़ कर क्या सोचेंगे
पर मै ये बाते कहूं भी तो किससे ?
क्योंकि मेरी तो काई दीदी भी नही है
और दादी भी नही है अगर
मम्मी से कहो तो वह झिडक देती हैं
कहती हैं तुम अपने आपमे सही रहो
दूसरो से मतलब क्यों रखती हो
पर ड़ैड़ी, आदमी अकेले तो सही नही रह सकता
जबतब कि दूसरे भी सही न हों
पापा यह बात मम्मी को आप समझाइयेगा
और मेरी इन सब बातों को पूरा करना भूल मत जाइयेगा
भले ही आप मेरे लिये गिफट लाना भूल जायें

आपकी अच्छी बेटी





रचनाकार:-मुकेश इलाहाबादी 


(मुकेश जी की यह रचना फेसबुक समूह "काव्य संसार" से ली गयी है |)