पृष्ठ

गुरुवार, 31 मई 2012

***मुर्दा ***

जिन्दा तो हैं यहाँ
पर प्राण का नाम नहीं,
फिरते हैं यात्र-तत्र
बने जीवित मुर्दा;

कुंठित है सोच
अपंग क्रियाकलाप,
कलुषित है हर अंग
क्या नैन-मुख-गुर्दा |

एक धुंधली ज्योति
है लिए अंतरात्मा,
है उसे लौ बनाके
स्वयं को प्राण देना;

मुर्दा बनके जीना
मृत्यु से भी बद्तर,
है जीवित अगर रहना
बस यही ज्ञान लेना |

ये नींद उचट जब जाती है

ये नींद उचट जब जाती है
सर्दी की हो गर्मी की,
ये रातें बहुत सताती है
ये नींद  उचट जब जाती है
मन के कोने में सिमटी सी
दुबकी,सुख दुःख से लिपटी सी
चुपके चुपके,हलके हलके
आ जाती खोल,द्वार दिल के
कुछ खट्टी कुछ मीठी  यादें
चुभने वाली कडवी यादें
कुछ अपनों की,बेगानों की
गुजरे दिन के अफ्सानो की
कुछ बीती हुई  जवानी की
परियों की मधुर कहानी सी
कुछ कई पुराने बरसों की
कुछ  ताज़ी कल या परसों की
कुछ हमें गुदगुदाती है आकर,
कुछ आंसू  कई रुलाती है
ये नींद उचट जब जाती है
मन करवट करवट लेता है
तन करवट करवट लेता है
सुन तेरे साँसों की सरगम
छूकर रेशम सा तेरा  तन
ये हाथ फिसलने लगते है
 अरमान मचलने लगते है
आ जाते याद पुराने दिन
कटती थी रात नहीं तुम बिन
हम जगते थे,सो जाने को
हम थकते थे ,सो  जाने को
मन अब भी करता है लेकिन
देता है टाल यूं ही ये  तन
मन को मसोस कर रह जाते,
और हिम्मत ना हो पाती है
ये नींद उचट जब जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

ख़ामोशी ....


"खामोश हो तुम ,
पर कुछ कहती हो "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"दिन में तारे गिनती रहती हो , 
खुली आँख से सपने बुनती हो ,
अछर धुंधला सा है, लेकिन ,
एक खुली किताब सी लगती हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर ! 
"कभी बोलती थकती नही,
जैसे सारे जग का ज्ञान तुम्हे है !
कभी चुप शांत भोली सी,
जैसे कोई नादाँ हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"ख़ामोशी में तेरी बातों को ,
सुन लिया हैचुप से मैंने भी ,
आँखों के तेरे सपनों को ,
बुन लिया है मैंने भी ,
तुम किताब हो तेरी कविता ,
को पढ़ लिया है मैंने भी ,
तेरा बोलना हो या चुप रहना,
मुझको सब अच्छा लगता है !
तेरी बातों में मुझको,
बचपन का सब सच लगता है! "
मुझको याद नहीं है लेकिन ,
ये सुब मुझसे कभी कहा हो !
खामोश हो तुम,
पर कुछ कहती हो, ऐसा कहते हो तुम अकसर .....



बुधवार, 30 मई 2012

जमीन से जुड़ो

       जमीन से जुड़ो

घास ,
जमीन से जुडी होती  है
जो शबनम की बूंदों को भी,
बना देती मोती है
एक छोटा सा बीज,
जब धरती की कोख में समाता है
तो विशालकाय वृक्ष बन जाता है
या कई गुणित होकर,
फसल सा लहलहाता है
तारे,
जो ऊपर आसमान से ताल्लुक रखते है
लुप्त हो जाते है उजाले में,
बस रात को चमकते  है
ये धरा क्या है
ये धरा हमारी माँ है
हमारी काया
को धरा की माटी ने बनाया
हमारा सहारा है,
हमारा आसरा है
आसमान में क्या धरा है
रत्नों की खान,रत्नगर्भा  धरा है
इसलिए ज्यादा ऊंचे मत उड़ो
आसमान का तारा बनने से बेहतर है,
जमीन से जुड़ो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लालची लड़कियां

           लालची  लड़कियां

कुछ लड़कियां

रंगबिरंगी तितलियों सी मदमाती है
भीनी भीनी खुशबू  से ललचाती है
उड़ उड़ कर पुष्पों पर मंडराती  है
बार बार पुष्पों का रस पीती है
रस की लोभी है,मस्ती से जीती है
कुछ लड़कियां,
कल कल करती नदिया सी,
खारे से समंदर से भी,
मिलने को दौड़ी चली जाती है
क्योंकि समंदर,
तो है रत्नाकर,
उसके मंथन से,रतन जो पाती है
कुछ लड़कियां,
पानी की बूंदों सी,
काले काले बादल का संग छोड़,
इठलाती,नाचती है हवा में
धरती से मिलने का सुख पाने
और धरती की बाहों  में जाती है समा
क्योंकि धरा,होती है रत्नगर्भा  
ये लड़कियां,
खुशबू और रत्नों के सपने ही संजोती है
इतनी लालची क्यों होती है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

मंगलवार, 29 मई 2012

आपकी खूबसूरती

आपकी खूबसूरती

आपको छूने से आ जाती जिस्म में गर्मी,
       देख कर आँखों को ,ठंडक मिले    गजब सी है
आपके पास में आने से पिघल जाता बदन,
            आपके  हुस्न की तासीर ही अजब सी है
 आपके आते ही ,सारी फिजा बदल जाती,
          आप मुस्काती  हैं,तो जाता है बदल मौसम
एक खुशबू सी बिखर जाती है हवाओं में,
          चहकने लगता है,महका  हुआ सारा  गुलशन
आप इतनी हसीं है और इतनी नाज़ुक है,
          आपको छूने में भी थोडा  हिचकता है दिल
आप में नूर खुदा का है,आब सूरज की,
         चमक है चन्दा सी चेहरे पे,हुस्न है कातिल
बड़ी   फुर्सत से गढ़ा है बनाने वाले ने,
         उसमे कुछ ख़ास मसाला भी मिलाया  होगा
देखता रह गया होगा वो फाड़ कर आँखें,
         आपको रूबरू जब सामने    पाया    होगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
     

चलो आज कुछ तूफानी करते है

चलो  आज कुछ तूफानी करते है
होटल में पैसे उड़ाते नहीं,
गरीबों का चायपानी करते है
चलो ,आज कुछ तूफानी करते है
अनपढ़ को पढना सिखायेंगे  है हम
भूखों को खाना खिलाएंगे  हम
काला ,पीला ठंडा पियेंगे नहीं,
प्यासों को पानी पिलायेंगे हम
काम किसी के तो आ जाएगी,
दान चीजें पुरानी करतें है
चलो,आज कुछ तूफानी करते है
निर्धन की बेटी की शादी कराये
अंधों की आँखों पे चश्मा चढ़ाएं
अपंगों को चलने के लायक बनाये
पैसे नहीं,पुण्य ,थोडा  कमाए
अँधेरी कुटिया में दीपक जला,
उनकी दुनिया सुहानी करते है
चलो ,आज कुछ तूफानी करते है
बूढों,बुजुर्गों को सन्मान दें
बुढ़ापे में उनका सहारा  बनें
बच्चों का बचपन नहीं छिन सके
हर घर में आशा की ज्योति   जगे
लाचार ,बीमार ,इंसानों के,
जीवन में हम रंग भरते है
चलो,आज कुछ तूफानी करते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपना अपना नजरिया

    अपना अपना नजरिया
एक बच्चा कर में जा रहा था
एक बच्चा साईकिल चला रहा था
साईकिल वाले बच्चे ने सोचा,
           देखो इसका कितना मज़ा है
            कितना सजा धजा है
            न धूल है,न गर्मी का डर है 
               नहीं मारने पड़ते पैडल है
    क्या आराम से जी रहा है
कार वाले लड़के ने सोचा,
            मै कार के अन्दर  हूँ बंद
            मगर इस पर नहीं कोई प्रतिबन्ध
            जिधर चाहता है ,उधर जाता है
            अपने रास्ते खुद बनाता  है
  कितने मज़े से जी रहा है
दोनों की भावनायें जान,
ऊपरवाला  मुस्कराता है
कोई भी अपने हाल से संतुष्ट नहीं है,
दूसरों की थाली में,
ज्यादा ही घी नज़र आता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 28 मई 2012

याद आये रात फिर वही

 
अहद तेरा यूँ लेकर दिल में
याद आये रात फिर वही
बदगुमान बन तेरी चाहत में
अपने हर एहसास लिये मुझे

याद आये रात फिर वही
अनछुये से उस ख़्वाब का
बेतस बन पुगाने में मुझे
याद आये रात फिर वही
उनवान की खामोशी में
सदियों की तड़प दिखे और
याद आये रात फिर वही
तेरे ख़्यालों में खोयी
ये जानती हूँ तू नहीं आयेगा
फिर भी मुझे,
याद आये रात फिर वही
याद आये बात फिर वही ।
© दीप्ति शर्मा

रविवार, 27 मई 2012

जेबकतरी सरकार



बढ़ती कीमत देख के मच गया हाहाकार,
जनता की जेबें काटे ये जेबकतरी सरकार |

मोटरसाईकिल को सँभालना हो गया अब दुश्वार
कीमतें पेट्रोल की चली आसमान के पार |

बीस कमाके खरच पचासा होने के आसार,
महँगाई करती जाती है यहाँ वार पे वार |

त्राहिमाम कर जनता रोती दिल में जले अंगार,
सपने देखे बंद होने के महँगाई के द्वार |

महंगाई के रोध में सब मांगेंगे अधिकार,
दो-चार दिन चीख के मानेंगे फिर हार |

तेल पिलाये पानी अब कुछ कहना निराधार,
मन मसोस के रह जाना ही शायद जीवन सार |

लुटे हुए से लोग और धुँधला दिखता ये संसार,
गर्मी के मौसम में अब मिले हैं ये उपहार |

देख न पाती दु:ख जनता के उल्टे देती मार,
जेबकतरी सरकार है ये तो जेबकतरी सरकार |

शुक्रवार, 25 मई 2012

विसंगति

    विसंगति

एक बच्ची के कन्धों पर,

                  स्कूल के कंधे  का बोझ है
एक बच्ची घर के लिए,
                  पानी भर कर लाती रोज है
एक को ब्रेड,बटर,जाम,
                      खाने में भी है नखरे
एक को मुश्किल से मिलते है,
                       बासी रोटी  के टुकड़े
एक को गरम कोट पहन कर
                        भी   सर्दी  लगती है 
एक अपनी फटी हुई  फ्राक में
                          भी ठिठुरती   है
एक के बाल सजे,संवरे,
                         चमकीले  चिकने है
एक के केश सूखे,बिखरे,
                         घोंसले  से बने  है
एक के चेहरे पर गरूर है,
                        एक में भोलापन है
इसका भी बचपन है,
                       उसका भी बचपन है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

संयम- दो कविताये

       संयम- दो कविताये
                   1
               चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी सर्दी  में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत  जाती है
                      २
         तकिया
जिसको सिरहाने रख कर के,
                           मीठी नींद कभी आती थी
जिसको बाहों में भर कर के
                         ,रात विरह की कट जाती थी
कोमल तन गुदगुदा रेशमी,
                        बाहुपाश में सुख देता था
जैसे चाहो,वैसे खेलो,
                         मौन सभी कुछ सह लेता था
वो तकिया भी ,साथ उमर के,
                        जो गुल था,अब खार  बन गया
बीच हमारे और तुम्हारे,
                           संयम की दीवार   बन गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

गुरुवार, 24 मई 2012

नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई-

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर

O B O द्वारा आयोजित 

"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक -१४

http://api.ning.com/files/Oy28poxryn53SYjlQfk*AnyCESope9IU5R4gpiLnXbfxvk241OQwtLZUgjpZVFNhwCBGzJw4U225jmBlcyMl43UcqvXnMO67/Kathputli.gif
कुंडली
बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |

मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  |
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |
हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।
डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

कुंडली
नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |
देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |
मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

दोहे
कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |
दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |
*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??
*पोटली
बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |
कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||
*बालक **चालाक
राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |
चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||
भूप उवाच-
कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?
चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||
*नागफनी / बिछौना
बबलू उवाच-
हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |
माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

कुंडलिया
गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।
सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।
निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।
करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |
है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |
रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

(2)
रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |
प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ
ने आज, सत्य ही मान बढाया |
अरुण निगम
आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

चिक

चिक
मेरे शयनकक्ष में,रोज धूप आती थी
सर्दी  में सुहाती थी
गर्मी में सताती थी
अब मैंने एक चिक लगवाली है
और धूप से मनचाही निज़ात पा ली है
समय के अनुरूप
वासना की धूप
जब मेरे संयम की चिक की दीवार से टकराती है
कभी हार जाती है
कभी जीत  जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 23 मई 2012

गाँव का वो घर-वो गर्मी की छुट्टी

 गाँव का वो घर-वो गर्मी की छुट्टी
          
मुझे याद आता है,गाँव का वो घर,
                        वो गर्मी की रातें, वो बचपन सलोना
ठंडी सी  छत पर,बिछा  कर के बिस्तर,
                       खुली चांदनी में,पसर कर के सोना
ढले दिन और नीड़ों में लौटे परिंदे,
                        एक एक कर उन सारों को गिनना
पड़े  रात तारे ,लगे जब निकलने,
                        तो नज़रे घुमा के,  उन सारों को गिनना
भीगा   बाल्टी में, भरे आम ठन्डे,
                         ले ले के चस्के,  उन्हें चूसना    फिर
एक दूसरे को पहाड़े सुनाना,
                          पहेली  बताना,  उन्हें  बूझना   फिर
जामुन के पेड़ो पे चढ़ कर के जामुन,
                           पकी ढूंढना  और  खाना  मज़े से
करोंदे की झाड़ी से ,चुनना करोंदे,
                           पकी खिरनी चुन चुन के लाना  मज़े से
अम्बुआ की डाली पे,कोयल की कूहू,
                           की करना नक़ल और चिल्ला के गाना
,कच्ची सी अमियायें ,पेड़ों पर चढ़ कर,
                           चटकारे ले ले के,मस्ती में    खाना
चूल्हे में लकड़ी  और कंडे जला कर,
                             गरम रोटियां जब खिलाती थी अम्मा
कभी लड्डू मठरी,कभी सेव पपड़ी,
                              कभी ठंडा शरबत   पिलाती थी अम्मा
 कभी चोकड़ी ताश की मिल ज़माना,
                             कभी सूनी सड़कों पे लट्टू  घुमाना
भुलाये  भी मुझको नहीं भूलती  है,
                              वो गर्मी की छुट्टी, वो  बचपन सुहाना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'         

  


मंगलवार, 22 मई 2012

थोडा प्यार होना चाहिए


चंद लम्हों  की जिंदगी है खुशगवार होनी चाहिए,
खुशगवार मौसम के लिए थोडा प्यार होना चाहिए |

प्यार ही है नेमत और ये प्यार ही है पूजा,
पर प्यार है तो थोड़ी-सी तकरार होनी चाहिए |

तकरार से बढती है खूबसूरती इस प्यार की,
तकरार के साथ-साथ इजहार होना चाहिए |

इजहार न होके अगर हो जाये इनकार,
इनकार में भी रजामंदी बरक़रार होना चाहिए |

मुश्किलें हो, कांटे हो या हो लोहे की दीवार,
जो भी हो पर थोडा प्यार होना चाहिए |

नैनों के बाण जरा सोच के चला ज़ालिम,
आँखों के तीर दिल के पार होने चाहिए |

छलनी कर डालो भले इस दिल को लेकिन,
घायल मजनू को लैला का दीदार होना चाहिए |

जिंदगी हो भरा मौसम-ए-बहार से ऐ "दीप",
जिंदगी भर खिला दिल-ए-गुलजार होना चाहिए |

जख्म हो, दर्द हो या हो दिल पे कोई वार,
जो भी हो पर थोडा प्यार होना चाहिए |

सोमवार, 21 मई 2012

तू हो गयी है कितनी पराई ।

अथाह मन की गहराई
और मन में उठी वो बातें
हर तरफ है सन्नाटा
और ख़ामोश लफ़्ज़ों में
कही मेरी कोई बात
किसी ने भी समझ नहीं पायी
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।

अब शहनाई की वो गूँज
देती है हर वक्त सुनाई
तभी तो दुल्हन बनी तेरी
वो धुँधली परछाईं
अब हर जगह मुझे
देने लगी है दिखाई
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।

पर दिल में इक कसर
उभर कर है आई
इंतज़ार में अब भी तेरे
मेरी ये आँखें हैं पथराई
बाट तकते तेरी अब
बोझिल आहें देती हैं दुहाई
पर तुझे नहीं दी अब तक
मेरी धड़कनें भी सुनाई
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।

© दीप्ति शर्मा

रविवार, 20 मई 2012

माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं

माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं
बच्चो को बोझ से नजर आते हैं,
जिनकी उँगली थाम के सीखते हैं चलना ,
उन्ही का सहारा बनने में कतराते हैं,
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |
अपना पेट काट कर पालते थे जिन बच्चो को ,
वही बच्चे उन्हें दो वक्त की रोटी का मोहताज बना जाते हैं ,
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |
अपनी हर ख़ुशी कुर्बान कर दी जिन बच्चो की खातिर ,.......................

  

 अनु डालाकोटी


 शेष कविता के लिए ब्लॉग anudalakoti.blogspot.in  पर अवश्य जाएँ तथा अपनी प्रतिक्रियाएं दे | धन्यवाद|

देश की कुंडली

       देश की कुंडली
एक तरफ तो भ्रष्ट सारी मंडली है
और दूजी तरफ भज भज मंडली है
क्या नहीं विकल्प कोई तीसरा है,
किस तरह की  देश की ये  कुंडली है
यहाँ पर सियार  है,सारे  रंगे है
लूटने में , देश को, मिल कर लगे है
कोई भी एसा  नज़र आता नहीं है
लुटेरों से जिसका कुछ नाता नहीं है
किस तरह से पेट भर पाएगी जनता,
जो भी रोटी उठाते है,वो जली है
किस तरह की देश की ये कुंडली  है
हर तरफ है,भ्रष्टता का बोलबाला
लक्ष्मी ,स्विस बेंक में ,मुंह करे काला
बढ़ रही मंहगाई अब सुरसा मुखी है
परेशां ,लाचार सी जनता दुखी  है
कहाँ जाए,रास्ता दिखता नहीं है,
आज  काँटों से भरी ,हर एक गली है
किस तरह की ,देश की ये कुंडली है
सह रहे क्यों,इस तरह,ये मार है हम
पंगु क्यों है,हुए क्यों लाचार  है हम
क्यों हमारा खून ठंडा  पड़ गया  है
आत्म का सन्मान क्यों कर मर गया है
फूटना ज्वालामुखी का है सुनिश्चित,
लगी होने धरा में कुछ खलबली  है
किस तरह की देश की ये कुंडली है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 19 मई 2012

सबसे बड़ा अजूबा

     सबसे बड़ा अजूबा
खुदा की खुदाई से,
खुदा के बन्दों ने,कुछ पत्थर खोद निकाले
और अपनी मृत काया को सुरक्षित रखने को,
विशालकाय पिरेमिड बना  डाले
और ये पिरेमिड आज एक अजूबा है
अपनी संगेमरमर सी सुन्दर बेगम की याद में,
एक बादशाह ने,धरती की कोख से,निकले संगेमरमर
और लगा दिए कब्रगाह में,बना दिया ताजमहल
और ये ताजमहल आज एक अजूबा है
और चीन के शासकों ने,
सुरक्षित रखने को अपनी सीमायें
धरती के सीने से,कितने ही पत्थर खुदवाये
और बना डाली एक लम्बी चौड़ी दीवार
जिसे कोई भी न कर सके पार
ये चीन  की दीवार भी आज एक अजूबा है
इसी तरह ब्राजील में,पहाड़ की चोंटी पर,
हाथ फैलाए क्राइस्ट का पुतला,
या जोर्डन में पेट्रा का महल,
रोम का कोलोसियम
या पेरू का माचु पिचु
ये सारे अजूबे बनाए है ,
भगवान के गढ़े एक अजूबे ने,
जिसे कहते है इंसान
और बनाए गए है,चीर कर सीना,
उस धरती माता का,
जो अपने आप में अजूबा है महान
जिसकी कोख में एक बीज डाला जाता है
तो हज़ारों दानो में बदल जाता है
जिसके सीने पर कई उत्तंग शिखर है
और तन पर लहराते कई समंदर  है
तो आओ,पहले हम इन अजूबों को सराहें
पर उस सृष्टि कर्ता को नहीं भुलायें
जिसके इशारों पर रोज सूरज निकलता है
चाँद घटता और बढ़ता है
हवायें लहलहाती है 
पुष्पों से खुशबू आती है
क्योंकि ये सृष्टि और वो सृष्टि कर्ता ,
जो सृष्टि का संचालन करता है ,
अपने आप में संसार का सबसे बड़ा अजूबा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुवार, 17 मई 2012

रिश्ते-मधुर और चटपटे

रिश्ते-मधुर और चटपटे

रिश्तों का दूध,थोड़े से खटास  से,
जब जाता है फट
तो बस छेना बन कर जाता है सिमट
जो प्यार की चाशनी में उबाले जाने पर
बन जाता है रसगुल्ला,
स्वादिष्ट,रसीला  और मनहर
सूजी की छोटी छोटी पूड़ियाँ,
प्यार की स्निघ्ता  में धीरे धीरे तली जाए,
तो बन जाती है फुलकियाँ
जिनको अगर खाया जाए,
आपसी रिश्तों का,चटपटा पानी भर
तो वो गोलगप्पे,स्वाद की घूंटो से,
देते है  खुशियाँ  भर
धनिया और पुदीने के,
पत्तों सा सादा जीवन,
प्यार के मसालों के साथ पिस कर ,
बन जाता है चटपटी चटनी
जीवन की राहें ,जलेबी की तरह,
कितनी ही टेडी हो,
प्यार  के रस में डूब कर,
बन जाती है स्वादिष्ट और रस भीनी
सिर्फ प्यार की शर्करा में ही एसा मिठास है,
जो बिना डायबिटीज के दर से,
जीवन में मधुरता भरता है
रिश्तों में अपनापन,
चाट का वो मसाला है,
जो जीवन को चटपटा और  स्वादिष्ट करता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


मंगलवार, 15 मई 2012

"बच्चा बिकाऊ है"


पिछले दिनों अचानक
एक खबर है आई,
सरकारी अस्पताल  को
किसी ने मंडी है बनाई |

चर्चा थी वहां तो
सब कुछ ही कमाऊ है,
गुपचुप तरीके से वहां
"एक बच्चा बिकाऊ है" |

सुनकर ये खबर
मैं सन्न-सा हुआ,
पर तह तक जाके
मन खिन्न-सा हुआ |

दो दिन का बच्चा एक
बिकने है वाला,
पुलिस-प्रशासन कहाँ कोई
रोकने है वाला !

अस्पताल वालों ने ही
ये बाजार है सजाई,
बीस हजार की बस
कीमत है लगाई |

बहुतों ने अपना दावा
बस ठोक दिया है,
कईयों ने अग्रिम राशी तक
बस फेंक दिया है |

पता किया तो जाना खबर
नकली नहीं असली है,
बच्चे को जानने वाली माँ
"घुमने वाली एक पगली" है |

इस एक समस्या ने मन में
सवाल कई खड़े किये,
मन में दबे कई बातों को
अचानक इसने बड़े किये |

लावारिश पगली का माँ बनना
मन कहाँ हर्षाता है,
हमारे ही "भद्र समाज" का
एक कुरूप चेहरा दर्शाता है |

बच्चे पर बोली लगना
भी तो एक बवाल है,
पेशेवर लोगों के धंधे पर
ज्वलंत एक सवाल है |

सभ्य कहलाते मनुष्यों का
ये भी एक रूप है,
अच्छा दिखावा करने वालों का,
भीतरी कितना कुरूप है |

सरकार से लेके आम जन तक का
इस घटना में साझेदारी है,
किसी न किसी रूप में सही
हम सबकी इसमें हिस्सेदारी है |

समस्या का नहीं हल होगा
कभी हड़ताल या अनशन से,
हर मर्ज़ से हम निजात पाएंगे
बस सिर्फ आत्म-जागरण से |

रविवार, 13 मई 2012

माँ


जीवन की रेखा की भांति जिसकी महत्ता होती है,
दुनिया के इस दरश कराती, वह तो माँ ही होती है |

खुद ही सारे कष्ट सहकर भी, संतान को खुशियाँ देती है,
गुरु से गुरुकुल सब वह बनती, वह तो माँ ही होती है |

जननी और यह जन्भूमि तो स्वर्ग से बढ़कर होती है,
पर थोडा अभिमान न करती, वह तो माँ ही होती है |

"माँ" छोटा सा शब्द है लेकिन, व्याख्या विस्तृत होती है,
ममता के चादर में सुलाती, वह तो माँ ही होती है |

संतान के सुख से खुश होती, संतान के गम में रोती है,
निज जीवन निछावर करती, वह तो माँ ही होती है |

शत-शत नमन है उस  जीवट को, जो हमको जीवन देती है,
इतना देकर कुछ न चाहती, वह तो माँ ही होती है |

यादें

कभी हँसाती कभी रुलाती
दिल को सदा बहलाती यादें,
कुछ खट्टी सी कुछ मीठी सी
आँख मिचोली करती यादें,
बीते लम्हों को साथ में लेकर
हर पल हमें सताती यादें,
हर किसी के मन में बसती
कुछ धुंधली ,कुछ चमकीली यादें,
नम लम्हों की सोच में
होटों पे मुस्कराहट लाती यादें,
तो कभी मुस्कुराते पलों की याद में
आँखें नम कर जाती यादें,
यादों की दास्ताँ है लम्बी बहुत
कितना कुछ कह जाती यादें,
अपनों के साथ और अपनों की बात को,
हर वक्त दिल में बसाती यादें,
दुनिया का कोई भी कोना हो
साथ निभाती हैं तो सिर्फ यादें,
कभी हँसाती कभी रुलाती
दिल को सदा बहलाती यादें |



                                          अनु डालाकोटी

एक बाग़ के दो पेड़

एक बाग़ के  दो पेड़

एक बाग़ में दो पेड़ लगे

दोनों साथ साथ बढे
माली ने दोनों को अपना प्रीत जल दिया
साथ साथ सिंचित किया
समय के साथ,दोनों में फल आये
एक वृक्ष के कच्चे फल भी लोगों ने खाये
कच्ची केरियां भी चटखारे ले लेकर खायी 
किसीने अचार तो किसी ने चटनी बनायी
पकने पर उनकी रंगत सुनहरी थी
उनके रस की हर घूँट,स्वाद से भरी थी
उसकी डाली पर कोयल कूकी,
पक्षियों ने नीड़ बनाया
थके पथिकों ने उसकी छाँव में आराम पाया
और वो वृक्ष आम कहलाया
दूसरे वृक्ष पर भी ढेरों फल लगे
मोतियों के सेकड़ों रस भरे दाने,
एक छाल के आवरण में बंधे
कच्चे थे तो कसेले थे,पकने पर रसीले हुए
हर दाना,अपने ही साथियों के संग बांध कर,
अपने में ही सिमट कर रह गया
एक दूजे संग ,कवच में बंध कर रह गया
पर उसकी टहनियों पर,न नीड़ बन पाये
न उसकी छाँव में राही सुस्ताये
उसका हर दाना रसीला था,पर,
हर दाने का अलग अलग  आकार था
वो वृक्ष अनार था
एक बाग़ में,एक ही माली ने लगाए दो पेड़
दोनों में ही फल लगे,रसीले और ढेर
पर दोनों ही पेड़ों की भिन्न प्रवृती है
कुदरत भी कमाल करती है
एक बहिर्मुखी है,एक अंतर्मुखी है
अपने अपने में दोनों सुखी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

फितरत

    फितरत
चुगलखोर चुगली से,
चोर हेराफेरी से,
                बाज नहीं आता है
कितना ही भूखा हो,
मगर शेर हरगिज भी,
                घास नहीं खाता है
रंग कर यदि राजा  भी,
बन जाए जो सियार,
                  'हुआ'हुआ' करता है
नरक का आदी जो,
स्वर्ग में आकर भी,
                   दुखी  रहा  करता है
लाख करो कोशिश तुम,
पूंछ तो कुत्ते की,
                   टेडी ही रहती है
जितनी भी नदियाँ है,
अन्तःतः सागर  से,
                    मिलने को बहती है
एक दिवस राजा बन,
भिश्ती भी चमड़े के,
                     सिक्के चलवाता है
श्वेत हंस ,बगुला भी,
एक मोती चुगता है,
                   एक मछली खाता है
अम्बुआ की डाली पर,
कूकती कोयल पर,
                   काग 'कांव 'करता है
फल हो या फलविहीन,
तरुवर तो तरुवर है,
                   सदा छाँव  करता है
महलों के श्वानों की,
बिजली का खम्बा लख,
                   टांग उठ ही  जाती है
जिसकी जो आदत है,
या जैसी  फितरत है,
                    नहीं बदल  पाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

माँ


जब पहला आखर सीखा मैंने
लिखा बड़ी ही उत्सुकता से
हाथ पकड़ लिखना सिखलाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

अँगुली पकड़ चलना सिखलाया
चाल चलन का भेद बताया
संस्कारों का दीप जलाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

जब मैं रोती तो तू भी रो जाती
साथ में मेरे हँसती और हँसाती
मुझे दुनिया का पाठ सिखाती
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

खुद भूखा रह मुझे खिलाया
रात भर जगकर मुझे सुलाया
हालातों से लड़ना तूने सिखाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।
© दीप्ति शर्मा

शनिवार, 12 मई 2012

सफलता

हर मोड़ जिन्दगी का मुश्किल नहीं है साथी
जलती रहेगी ज्योति जीवित रहे जो बाती,
कभी हार न जाना.........................................

 शेष पंक्तियों  के लिए  ब्लॉग- anudalakoti.blogspot.in पर अवश्य जाएँ तथा  अपने सुझाव दें,
 धन्यवाद |

मै- स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक

 मै- स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक.

मेरे पिताजी चाहते थे मै इंजीनियर  बनू,मैंने बी.टेक.पास किया

मेरी माताजी चाहती थी मै डॉक्टर बनू,सो मैंने करेस्पोंडेंस कोर्स से
होमियोपेथी पढ़ कर अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाया.
मेरे दादाजी चाहते थे कि मै  कर्मकांडी पंडित बनू,तो उन्होंने मुझे
बचपन से कर्मकांड सिखलाया .मेरी दादीजी चाहती थी कि मै
कथावाचक संत बनू,तो मैंने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर
भागवत,रामायण और शास्त्रों का अध्ययन किया.और फिर
सभी की अपेक्षाओं पर खरा उतर कर,मैंने हर प्रोफेशन को ट्राय
किया और अंत में  इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरी दादीजी कितनी सही थी
और आज मै स्वामी डा.मोम बाबा बी.टेक.,कथावाचक संत हूँ.
इंजिनियर रहता तो रेत,बजरीऔर सीमेंट मिला कर बड़ी बड़ी
इमारतें खड़ी करता पर आज मै अपने प्रवचनों में कथा, भजन,और
संस्मरण मिला कर ऐसी कांक्रीट बनाता हूँ कि भक्तों के दिल में
जम कर ,स्वर्ग के सपनो कि ईमारत खड़ी हो जाती है-बीच बीच में,
मै थोड़े थोड़े घरेलू नुस्खे और चुटकुलों की छोटी छोटी,मीठी मीठी,
गोलियां देकर अपनी डाक्टरी के ज्ञान प्रदर्शन की भड़ास भी पूरी
कर लेता हूँ.कथा के पहले और बाद के कर्मकांडों व कुछ भक्तों की
विपदाओं को हरने के लिए की गयी विशेष पूजाएँ भी दादाजी के
आशीर्वाद से काफी धनप्रदायिनी होती है-और दादीजी के आशीर्वाद ने
मुझे एक प्रख्यात कथावाचक संत बना दिया है जिसके अमृत वचन
टी.वी. के कई चेनलों पर  दिन रात प्रसारित होते रहते है.अब मै एक पूजनीय
संत हूँ,-भक्त मुझे माला पहनाने को और मेरा आशीर्वाद पाने को
आयोजकों को मोटा चढ़ावा चढाते है
.मै इवेंट मेनेजर हूँ ,मेरी कथा में लाखों की उमड़ती भीड़ के लिए
पंडाल,टी.वी.,लाउड स्पीकर आदि की व्यवस्था मेरे ही लोग करते है
मै एम.बी.ए. की तरह अपने पूरे बिजनेस का मेनेजमेंट कुशल और
 लाभ दायक तरीके से करता हूँ जैसे भजन और प्रवचन के केसेट और
सी.डी.बना कर बेचना,मासिक पत्रिका छपवा कर अपने फोटो युक्त
फ्रोंट पेज पर अपने विचार और भक्तों के अनुभव छपवा कर अपना प्रचार
करना,या अपनी हर कथा पर १०८ या अधिक महिलाओं की कलश यात्रा
को बेंड बाजों के साथ शहर में घुमा कर अपना प्रचार करना आदि आदि-
मै    सी.ए. याने चार्टर्ड अकाउंटटेंट हूँ-मै जनता हूँ की  चढ़ावे  की इतनी कमाई को,
किस तरह टेक्स फ्री किया जाए या विदेशी रूट से काले पैसे को सफ़ेद बनाया जाये
कथा के साथ साथ और भी पैसे कमाने के कई गुर मैंने सीख लिए है ,जैसे,
भागवत कथा में रुकमनी विवाह पर भक्त महिलाओं से रुकमनी जी के दहेज़ में
साडी और आभूषण चढ़वाना,या कृष्ण सुदामा के मिलन प्रसंग पर भक्तों  से चावल
चढ़ा कर असीम दौलत प्राप्ति  का लालच देना आदि-इस तरह का चढ़ावा इतना आ जाता है
की समेटना मुश्किल हो जाता है अत:दूसरे दिन वही चढ़ावा कथा स्थल के बाहर भगवान
का प्रसाद बतला कर अच्छे दामो में बिक जाता है-इस तरह 'हींग लगे ना फिटकड़ी,रंग भी चोखो आय'
की कहावत को चरितार्थ करता हूँ.
प्रभू की असीम कृपा से ,कई तीर्थ स्थलों में मेरे आश्रम चल रहे है और मेरे पास अपार धन सम्पदा है
जो कदाचित इंजिनियर या डाक्टर बन कर मै नहीं कमा सकता था.-सत्ता और विपक्ष के कई
नेता मेरे परम भक्त है जिससे मेरे वर्चस्व  की वृद्धि होती है-मेरी तस्वीरें कितने ही भक्तों के
पूजा गृह में सु शोभित है. और अब मेरे बच्चों को अपने केरियर के बारे में सोचने की
कोई जरुरत ही नहीं है क्योंकि वो बाप की विरासत ही संभालेंगे अत :अभी से मेरी संतति
संत गिरी की ट्रेनिंग ले रही है.अरे हाँ,एक बात तो ना आपने पूछी,न मैंने बताई,-आप उत्सुक होंगे
मै मोम बाबा कैसे बना-इस नाम करण के पीछे कई कारण है-पहला ,जब भी कथा में कोई मार्मिक
प्रसंग आता है,मै अपने हाथो की कुशलता से अश्रु दायक द्रव अपनी आँखों पर लगा लेता हूँ
और मेरे चक्षुओं से आंसू की बरसात होने लगती है-भक्त समझते है की मै भाव विव्हल होकर
 मोम की तरह पिघल रहा हूँ पर असल में मै भाव विव्हल होकर अपने भाव बढाता हूँ.दूसरा,
मोम बत्ती की तरह मै लोगों के अन्धकार मय जीवन में प्रकाश भरता हूँ और तीसरा मुख्य
कारण है  की मेरा नाम मदन मोहन है जो काफी लम्बा है और भक्तों की जुबान पर छोटे नाम
जल्दी चढ़ते है सो मैंने ही अपने नाम के प्रथम अक्षरों से पहले म मो बाबा  सोचा पर थोडा अटपटा
लगा तो उलट कर मोम बाबा कर दिया जो सार्थक भी था.-आज मै जो भी हूँ,जनता की धर्म
के प्रति जागरूकता और पुन्य लाभ की आकांक्षा का प्रतिफल हूँ और आदरणीया दादीजी की
दूर दर्शिता,प्रेरणा और आशीर्वाद से हूँ-तो भक्तों !प्रेम से बोलो-राधे  राधे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 11 मई 2012

माटी की महक-ऊँचाइयों की कसक

माटी की महक-ऊँचाइयों की कसक

पहली पहली बारिश पर ,
माटी की सोंधी सोंधी महक
फुदकते पंछियों का कलरव,चहक
भंवरों का गुंजन
तितलियों का नर्तन
आम्र तरु पर विकसे बौरों की खुशबू
कोकिला की कुहू.कुहू
खिलती कलियाँ,महकते पुष्प
हरी घांस पर बिखरे शबनम के मोती,
या दालान में पसरी,कुनकुनी  धूप
कितना कुछ देखने को मिलता था
जब मै जमीन से जुड़ा था
अब मै एक अट्टालिका में बस गया हूँ,
जमीन से बहुत ऊपर,धरा से दूर
ऊपर से अपने लोग भी बोने से ,
रेंगते नज़र आते है,मजबूर
अब ठंडी बयार भी नहीं सहलाती है
हवाये सनसनाती,सीटियाँ बजाती है
अब सूरज को लेटने के लिए दालान भी नहीं है,
वो तो बस आता है
और खिड़की से झांक कर चला जाता है
कई बार सोचता हूँ,
जमीन से इतना ऊंचा उठ कर भी,
मेरे मन में कितनी कसक है
मैंने कितना कुछ खोया है,
न भंवरों का गुंजन है,न माटी की महक है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 9 मई 2012

यादें

          यादें
रात की नीरवता में,
जब तन और मन दोनों शिथिल होतें है,
और चक्षु बंद होते है,
मष्तिष्क के किसी कोने से,
सहसा एक  फाइल खुलती है
जो कभी थपकी देकर,नन्ही परी सी,
मन को सहला देती है,
या कभी कठोरता से,
मन को दहला देती है
कभी सूखते घावों की,
जमती हुई पपड़ी को,
अपने तीखे नाखुनो से खुरच,
घाव को फिर से हरा कर देती है
तो कभी रिसते घावों पर,
मलहम लगा कर राहत देती है
कभी हंसाती है,
कभी रुलाती है
कभी तडफाती है,
कभी झुलसाती है,
मीठी भी होती है
खट्टी भी होती है
कडवी भी होती है
चटपटी भी होती है
कभी पूनम की चांदनी सी
कभी मावस की कालिमा सी
कभी सुनहरी,कभी रुपहरी
कभी गुलाब की खुशबू भरी,
बड़ी ही द्रुत गति से,
जीवन के कई काल खण्डों को,
कूदती फांदती हुई,
स्मृति पटल पर ,छा जाती है,
  यादें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 8 मई 2012

मृत्यु

अभी हूं।
पर, पलक झपकते ही
हो सकता हूं
‘नहीं रहा’।

और, लग सकता है
पूर्णविराम।
सब-कुछ रह सकता है
धरा का धरा।

लेकिन, अभी सोचा नहीं
क्या फर्क है
होने और
चले जाने में।

अभी मनन करना है
कितना फासला है
दोनों स्थितियों में
बस कुछ, कदम या
मीलों।

पर, जाना तो है
एक दिन।
फिर, क्यूं मढ़़ रहा हूं
एक कपोल लोक
‘मेरा’ और ‘मेरे स्वार्थ का’।

रचनाकार-हरि आचार्य

रविवार, 6 मई 2012

नया जन-प्रतिनिधि

बनकर नव जन-प्रतिनिधि
हुआ आगमन मंच पर,
नमन कराकर सबसे
यह शीलवान ,
शुरू करता ह आत्म-आख्यान .....

शिक्षा- व्यापार में हूँ मैं,
राजनीति के प्रसार में हूँ मैं.
लोक-सभा में भी मैं,
और शोक सभा में भी मैं..!

मेरा अहं ही सब पर हावी,
सब की किस्मत की मैं चाबी,
ख्वाबो -ख्यालों में ही सही...

नग्न के झोपड़े में भी मैं,
इंसानी जूनूं के खोपड़े में भी मैं,
भोग-विलास में भी मैं,
निर्धनता की आस में भी मैं..!

नामौजूदगी में मेरी ,
ना हो कोई सौदा,
ना ही आंतरिक संधि,
ना ही कोई मसोदा क्योंकि...

हर व्यापार मैं भी मैं,
देश के सार में भी मैं,
कामगार में भी मैं,
और सरकार में भी मैं..!

तो समझ लूं..
मिलेंगें सब वोट मुझे ,
दावा है ये मेरे मन का,
पर प्रतिनिधि का नाम जानना,
अधिकार है जन-जन का....!

सोचते होगें
ये प्रतिनिधि है कैसा,
अरे अज्ञानी मतदाता..!
मेरा नाम है "पैसा"...!!

रचनाकार-कविता राघव

मेरी कलम कहती है ,,,,,,,

भूख लिखूँ
गरीबी लिखूँ
और ये बेकारी लिखूँ
मेरी कलम कहती है ,,,,,,,,,,,,,,,
जनता की हर लाचारी लिखूँ |
घपले लिखूँ
घोटाले लिखूँ
चल सारी मक्कारी लिखूँ
मेरी कलम कहती है ,,,,,,,,,,,,,,,
नेताओ की हर गद्दारी लिखूँ |
दुआ लिखूँ
दवा लिखूँ
या इसे नाइलाज बीमारी लिखूँ
मेरी कलम कहती है ,,,,,,,,,,,,,,,
देश के लिए अपनी ज़िम्मेदारी लिखूँ |
शांति लिखूँ
क्रांति लिखूँ
'विधु'कलम संग कटारी लिखूँ
मेरी कलम कहती है ,,,,,,,,,,,,,,
हर मन की दहकती चिंगारी लिखूँ |

रचनाकार-विशाखा 'विधु'
मेरठ, ऊ.प्र.

शुक्रवार, 4 मई 2012

भगवान जी,आपका एक अवतार तो बनता है

भगवान जी,आपका   एक अवतार तो बनता है

जब धरा पर पाप का भार बढ़ता है

बेईमानी और भ्रष्टाचार   बढ़ता है
राजा,सत्ता के मद में मस्त होता है
आम आदमी परेशान और त्रस्त होता है
ऋषियों के तप भंग किये जाते है
दुखी हो सब त्राहि त्राहि चिल्लाते है
भागवत और पुराण एसा कहते है
ऐसे में भगवान अवतार  लेते है
चुभ रहे  सबको मंहगाई के शूल है
सारी परिस्तिथियाँ,आपके अवतार के अनुकूल है
जनता दुखी है,मुसीबत ही मुसीबत है
भगवान जी,अब तो बस आपके अवतार की जरूरत है
कई बार आपके आने की आस जगी
लेकिन हर बार ,निराशा ही हाथ लगी
कंस की बहन देवकी ,कारावास गयी,
 मगर कृष्ण रूप धर तुम ना आये
कई रानियाँ रोज सत्ता की खीर खा रही है,
पर राम रूप धर  तुम ना आये
कितने ही  पुलों के खम्बे है टूट गये
फिर भी आप नरसिंह की तरह ना प्रकट भये
प्रभु जी आपसे निवेदन है कि
 जब आप अवतार ले कर आना,
मच्छ अवतार की तरह ,दिन दिन दूनी बढती,
मंहगाई की तरह  मत आना
ढीठ नेताओं की तरह ,कछुवे की पीठ कर,
कच्छ अवतार की तरह मत आना
राम की तरह आओ तो आपको,
 एक बात बतलाना जरूरी है
  रावणों ने अपनी सोने की लंका,
स्विस बेंको में शिफ्ट करली है
व्यवस्थाएं हो रही है बेलगाम
इसलिए चाहे कृष्ण बनो,वामन या परशुराम ,
बहुत बेसब्री से इन्तजार कर रही जनता है
भगवान जी,ऐसे में आप का एक अवतार तो बनता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

   

अभी तो मै जवान हूँ

अभी तो मै जवान हूँ

सिर्फ बाल रंगाने से आदमी जवान नहीं होता
ताक़त की दवा खाने से आदमी जवान नहीं होता
फेशियल कराने से ,आदमी जवान नहीं होता
झुर्रियां नाशक क्रीम लगाने से,आदमी जवान नहीं होता
जींस,शर्ट पहनने से ,आदमी जवान नहीं होता
लड़कियों से फ्लर्ट करने से ,आदमी जवान नहीं होता
जवानी एक जज्बा है ,जो दिल से निकलता है
जवानी एक अहसास है ,जो मन में मचलता है
जवानी तन की तरंग नहीं,मन की उमंग है
जवानी स्वच्छंद कामनाओं की लहराती पतंग है
कई जवान ,चढ़ती जवानी में भी बूढ़े दिखलाते है
कई बूढ़े  ,बुढ़ापे में भी ,जवान नज़र  आते है
मेरी कृष काया नहीं,मेरे जज्बात देखो
अभी मै जवान हूँ,मुझमे है कुछ बात देखो

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

तिलहन,दलहन और दुल्हन

तिलहन,दलहन और दुल्हन

लोग क्लोरोस्ट्राल  से घबराते है

इसलिए तेल कम खाते   है
फिर भी तेल के दाम बढे जाते है
    उपज कम है,इसलिए ,मंहगी है तिलहन भी
सब तरफ  दाल में काला  ही काला है
मंहगाई ने सबका दम ही निकाला  है
दाल बिना रोटी का सूखा निवाला  है
         कम होती है पैदा,मंहगी है,   दलहन भी
नारी तो है देवी,नारी है मातायें
लेकिन नारी को ही,अब बेटी ना भाये
नहीं रुकी कन्या  के भ्रूण  की हत्याएं
           हो जाएगी दुर्लभ,तब मिलना  दुल्हन भी

मदन मोहन बहेती'घोटू'

गुरुवार, 3 मई 2012

जिंदगी जिंदगी कहाँ

जिंदगी का काम ही है अनवरत चलते जाना,
ये जो रुक ही जाये तो जिंदगी जिंदगी कहाँ ;
लगा रहता है जिंदगी में लोगो का आना-जाना,
ना आये जाये कोई तो जिंदगी जिंदगी कहाँ |

माना कि सफ़र में कभी आंसू हैं निकलते,
और कभी होठों पे मुस्कान भी है आती;
खुशियाँ और गम है जिंदगी के ही पहलू,
दो पहलू ना हो तो जिंदगी जिंदगी कहाँ | 

माना कि हैं मिलते कांटे ही कांटे पथ में,
धुप्प-सा अँधेरा कभी दिखाई भी है पड़ता,
जाल फेंक कष्टों का परखती है जिंदगी,
जो संघर्ष न हो तो जिंदगी जिंदगी कहाँ |

बुधवार, 2 मई 2012

गुस्सा या शृंगार

गुस्सा या शृंगार
(घोटू के छक्के )
पत्नी अपनी थी तनी,उसे मनाने यार
हमने उनसे कह दिया,गलती से एक बार
गलती से एक बार,लगे है हमको प्यारा
गुस्से में दूना निखरे है रूप   तुम्हारा
कह तो दिया,मगर अब घोटू  कवी रोवे है
बात बात पर वो जालिम गुस्सा  होवे है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 1 मई 2012

नीम-निम्बौरी: कर सकते संसर्ग,अघोरी कामी साधक

नीम-निम्बौरी: कर सकते संसर्ग,अघोरी कामी साधक:   फेयरवेल-संसर्ग / मिस्र का नया कानून  सदियों से रखते रहे, लोग मिस्र में लाश ।  संरक्षित करते रहे, ममी बनाकर ख़ास । ममी ब...

मजदूर दिवस पर विशेष

मजदूर नहीं, तू है कर्मयोगी
कर्मपथ का है पथिक
तेरी सौंधी खुशबूं हरसौ
बाकी सबकुछ है क्षणिक।

तेरे पसीने की इक बूंद
नया भारत रचती है।
कर्म की परिभाषा तूने
नई रीत रे गढ़ दी है।

है! तुझे मेरा नमन
कर्मपथ पर चल अनवरत।
गूंज तेरे पुण्य कर्म की
गूंजे नभ में अनवरत। 

रचनाकार-हरि आचार्य
राजस्थान