पृष्ठ

रविवार, 13 मई 2012

फितरत

    फितरत
चुगलखोर चुगली से,
चोर हेराफेरी से,
                बाज नहीं आता है
कितना ही भूखा हो,
मगर शेर हरगिज भी,
                घास नहीं खाता है
रंग कर यदि राजा  भी,
बन जाए जो सियार,
                  'हुआ'हुआ' करता है
नरक का आदी जो,
स्वर्ग में आकर भी,
                   दुखी  रहा  करता है
लाख करो कोशिश तुम,
पूंछ तो कुत्ते की,
                   टेडी ही रहती है
जितनी भी नदियाँ है,
अन्तःतः सागर  से,
                    मिलने को बहती है
एक दिवस राजा बन,
भिश्ती भी चमड़े के,
                     सिक्के चलवाता है
श्वेत हंस ,बगुला भी,
एक मोती चुगता है,
                   एक मछली खाता है
अम्बुआ की डाली पर,
कूकती कोयल पर,
                   काग 'कांव 'करता है
फल हो या फलविहीन,
तरुवर तो तरुवर है,
                   सदा छाँव  करता है
महलों के श्वानों की,
बिजली का खम्बा लख,
                   टांग उठ ही  जाती है
जिसकी जो आदत है,
या जैसी  फितरत है,
                    नहीं बदल  पाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।