पृष्ठ

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

कंबल मुझको नहीं छोड़ता

लाख छुड़ाना चाहूँ कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता
बहुत पुराना ,मुझ संग रिश्ता ,बंधा हुआ है ,नहीं तोड़ता

जब जब भी मौसम बदला है ,सिहराती शीतल ऋतू आई
जिसने मुझको प्रबल शीत से ,रखा बचा और दी गरमाई
जिसने मुझको ,अपने आँचल में ढक ,माँ का प्यार दिया है
नरम मुलायम तन से सहला ,पत्नी सा व्यवहार किया है
मैं जिसके आगोश में बंध कर ,कितनी ही रातें सोया हूँ
परेशनियां ,चिताओं में ,जिससे मुंह  ढक  कर रोया हूँ
मैं भी बूढा ,वो भी बूढा ,वो मुझसे मुख नहीं मोड़ता
चाहूँ लाख छोड़ना कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता

जिसके संग अच्छे दिन काटे,उससे अब क्यों हाथ खींच लूं
वफ़ादार ,वो दुखी बिचारा ,मै क्यों उससे आँख मींच लूं
मीत ,सखा ,घरवाले कहते ,वृद्ध हुए ,मोह माया छोडो
खुली हवा में ,साँसे लो अब ,यह कंबल का बंधन छोडो
मैं भी दिल से यही चाहता ,अब मुझको आराम चाहिए
जीर्ण हो रही ,काया मेरी ,अब उसको विश्राम चाहिए
माया स्वयं ,पड़ी पीछे, मैं ,माया पीछे ,नहीं दौड़ता
चाहूँ लाख छोड़ना कंबल ,कंबल मुझको नहीं छोड़ता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू' 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।