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गुरुवार, 30 जून 2016

बेवफा बाल

      

ये बाल बेवफा होते है 

कितना ही इनका ख्याल रखो 
कितनी ही साजसम्भाल  रखो 
कितनी ही  करो कदर इनकी 
सेवा सुश्रमा , जी भर  इनकी 
हम सर पर इन्हे चढ़ा रखते 
कोशिश कर इन्हे बड़ा रखते 
अपना ही जाया  ,जान इन्हे 
हम कहते अपनी शान  इन्हे 
 ये   अपना  रंग  बदलते है  
और साथ बहुत कम टिकते है 
जैसे ही उमर गुजरती है ,
ये साफ़ और सफा होते है 
ये बाल बेवफा होते है 
ये बालवृन्द ,सारे सारे 
होते  ही कब  है तुम्हारे 
ये  होते  है   औलादों  से 
रह जाते है बस  यादों से 
संग छोड़ कहीं ये उड़ जाते 
कुछ संग रहते कुछ झड़ जाते 
ये करते अपना रंग बदला 
करते हमको ,गंजा ,टकला 
अहसास उमर का करवाते 
मुश्किल से  साथ निभा पाते 
ना रखो ख्याल,उलझा करते ,
ये खफा ,हर दफा होते है 
ये बाल बेवफा होते है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सच्ची कमाई

              

तू इतनी मै मै करता था और डींगें मारा करता था 
निज वर्चस्व दिखाने खातिर  ,ये नाटक सारे करता था 
महल दुमहले बना रखे थे  ,सुख के साधन जुटा रखे थे 
जमा करी अपनी दौलत पर ,सौ सौ पहरे बिठा  रखे थे 
छप्पनभोग लगी थाली में ,नित होता तेरा भोजन था 
खूब मनाता था रंगरलियां ,भोग विलास भरा जीवन था 
बहुत दम्भ में डूबा रहता ,मै ऐसा हूँ , मै हूँ  वैसा 
इतनी बड़ी सम्पदा मेरी ,कोई नहीं होगा मुझ जैसा 
झुकते थे सब तेरे आगे ,बड़ी शान शौकत थी तेरी 
इस माया के खातिर तूने ,करी उमर भर ,हेरा फेरी
दान धरम भी कभी किया तो,होता था वो मात्र दिखावा 
श्रदधा नहीं ,अहम होता था , ईश्वर के भी साथ छलावा 
आज देख ले ,क्या परिणीति है ,तेरे कर्मों की और तेरी 
बचा अंत में अब तू क्या है ,केवल एक राख की ढेरी 
घर की केवल एक दीवार पर ,तेरी फोटो टंगी हुई है 
सूखे मुरझाये  फूलों की,उस पर  माला , चढ़ी हुई  है
इस जीवन का अंत यही है ,तो बसन्त में क्या इतराना 
सच्ची एक कमाई होती ,सतकर्मों से नाम कमाना  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 27 जून 2016

पत्नीजी के जन्मदिवस पर


अगर आज का दिन ना होता 
और नहीं तुम  जन्मी  होती 
तो फिर कोई नार दूसरी ,
शायद  मेरी  पत्नी  होती 
हो सकता है वो तुम जैसी ,
सुंदर और सुगढ़  ना होती 
शायद अच्छी भी होती पर ,
वो तुमसे बढ़,चढ़ ना होती 
तुमसी प्यारी और हंसमुख वो,
जिंदादिल ,नमकीन न होती 
घर को सजाधजा रखने में ,
तुम सी कार्य प्रवीण न होती 
अपना सब कर्तव्य निभाने ,
तुम्हारे समकक्ष  न होती 
सभी घरेलू कामकाज और ,
पाकशास्त्र में दक्ष न होती 
हो सकता है सींग मारती ,
तुम सी सीधी  गाय न होती 
सभी काम जल्दी करने की,,
उसमे तुम सी   हाय न होती 
नित्य नयी फरमाइश करती,
तुम जैसी  सन्तुष्ट न होती 
मेरी हर छोटी गलती या ,
बात बात में रुष्ट न होती  
कैसे पति को रखे पटा कर,
कैसे रूठ ,बात मनवाना 
शायद उसे न आता होता ,
तुम जैसा प्यारा  शरमाना 
ना ना कर हर बात मानने ,
वाली कला न आती होती 
नित नित नए नाज़ नखरों से ,
मुझको नहीं सताती होती 
यह भी हो सकता शायद वो,
तुमसे भी नखराली होती 
अभी नचाता मैं तुमको ,
वो मुझे नचाने वाली होती 
तुम हो एक समर्पित पत्नी,
पता नहीं वो कैसी होती 
कलहप्रिया यदि जो मिल जाती,
मेरी ऐसी  तैसी होती 
दिन भर सजती धजती रहती,
झूंठी शान बघारा करती 
मुझ पर रौब झाड़ती  रहती,
निशदिन ताने मारा करती 
अगर फैशनेबल मिल जाती,
मै आफत का ,मारा होता 
रोज रोज होटल जाती तो ,
कैसे भला गुजारा  होता 
मुझे प्यार भी कर सकती थी,
रूठूँ अगर, मना सकती थी 
तुमसे बेहतर किन्तु जलेबी,
निश्चित ,नहीं बना सकती थी 
शुक्र खुदा का कि तुम जन्मी 
और मेरी अर्द्धांगिनी  हो 
मै तुम्हारे लिए बना हूँ ,
और तुम मेरे लिए बनी हो 
वर्ना मेरा फिर क्या  होता,
जाने कैसी पत्नी होती 
तुमसी  कनक छड़ी ना होकर ,
हो सकता है हथिनी होती 
तुम सीधीसादी देशी वो ,
कोई आधुनिक रमणी होती 
अगर आज का दिन ना होता,
और नहीं तुम जन्मी होती 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

बोलो अब खुश हो ना

  

हम मनमानी नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
कुछ शैतानी ,नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
तुम्हारा हर कहा,हमेशा ,सर ,आँखों पर लेंगे ,
आनाकानी नहीं करेंगे, बोलो अब खुश  हो ना 
मज़ा हमे आता है तुमसे ,छेड़छाड़ करने में ,
छेड़ाखानी नहीं करेंगे, बोलो अब खुश हो ना 
मन बहलाने ,इधर उधर ना ताकेंगे,झांकेंगे ,
कारस्तानी नहीं करेंगे,बोलो अब खुश हो ना 
तुम्हारी मुस्कान ,हमारी यही जमा पूँजी है ,
वो बेगानी नहीं करेंगे ,बोलो अब खुश हो ना 
मै तुम्हारी बातें मानूँ ,और तुम मेरी मानो,
जीने में होगी आसानी ,बोलो अब खुश हो ना 
तुम पतवार और मै मांझी,मिलकर पार करेंगे,
जीवन की  दरिया तूफानी ,बोलो अब खुश हो ना 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

विदेश प्रवास

   

हम तो है ऐसे दीवाने 
जाते तो है होटल, खाने,
पर खाना है घर का खाते ,
      निज टिफिन साथ में ले जाते 
छुट्टी में जाते है विदेश 
ये सोच करेंगें वहां ऐश 
पर ये देखो और वो देखो,
      चलते चलते  है थक जाते 
चक्कर में रूपये ,डॉलर के 
ना रहे घाट के  ,ना घर के 
फिर भी थैली में भर भरके ,
       हम  माल विदेशी है लाते 
हम उन  महिलाओं जैसे है
खरचे, जो पति के पैसे  है  
पर मइके के गुण गाती है ,
         हम गुण विदेश के गाते है 

घोटू 

नहीं समझ में आया

   

चार दिनों  के इस जीवन में  ,इतनी खटपट करके ,
क्यों की इतनी भागा दौड़ी ,नहीं समझ में  आया 
खाली हाथों आये थे और खाली हाथों  जाना ,
फिर क्यों इतनी माया जोड़ी ,नहीं समझ में आया 
ऐसे ,वैसे ,जैसे तैसे ,हम उनका दिल जीतें ,
हमने कोई कसर न छोड़ी ,नहीं समझ में आया 
न तो गाँठ में फूटी कौड़ी ,ना ही तन में दम है,
फिर भी बातें लम्बी चौड़ी ,नहीं समझ में आया 
शादी का लड्डू खाओ या ना खाओ ,पछताओ,
फिर भी मै चढ़ बैठा घोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
मुझे प्यार जतलाना अच्छा ,लगता,वो चिढ़ते है,
कैसी राम मिलाई जोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया  
दूर  के पर्वत लगे सुहाने ,पास आये तो पत्थर ,
हमने यूं ही टांगें तोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
अच्छे कल की आशा में ,बेकल हो जीवन जिया ,
बीत गई ये उमर निगोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अकड़

            

बड़े  रौब  से  हमने  काटी  जवानी ,
बड़ी शान से तब ,अकड़ कर के चलते ,
जो बच्चे हमारे  ,इशारों पर  चलते 
बड़े हो अकड़ते ,यूं नज़रें बदलते   
अकड़ रौब  सारा ,हुआ अब नदारद ,
अकड़ का बुढ़ापे में ,ऐसा चलन है 
जरा देर बैठो ,अकड़ती  कमर है ,
थकावट के मारे ,अकड़ता बदन है 
जरा लम्बे चल लो, अकड़ती है टांगें ,
अगर देखो टीवी ,अकड़ती है गरदन 
अकड़ती कभी उँगलियाँ या  कलाई,
अकड़ की पकड़ में  ,फंसा सारा है तन 

घोटू 

शनिवार, 25 जून 2016

कहीं देर न होजाये

         कहीं देर न होजाये

याद है अच्छी तरह से ,हमे अपने बचपन में ,
आसमा देखते थे ,नीला नीला लगता था ,
आजकल धुंधलका इतना भरा फिजाओं में ,
मुद्द्तें हो गई ,वो  नीला आसमां न दिखा
अँधेरा होते ही जब तारे टिमटिमाते थे,
घरों की छतों पर आ चांदनी पसरती थी ,
चांदनी में पिरोया करते सुई में धागा ,
पूर्णिमा का मगर ,वो वैसा चन्द्रमा न दिखा
थपेड़े मार कर ठंडी  हवा  सुलाती थी ,
सुनहरी धूप,सुबह ,थपकी दे जगाती थी,
चैन की नींद जितनी हमने सोयी बचपन में ,
क्या कभी ,फिर कहीं ,हमको नसीब होगी क्या
वो बरसती हुई सावन की रिमझिमें ,जिसमे,
भीग कर ,कूद कूद,नाचा गाया करते थे ,
वक़्त ने इस तरह माहौल बदल डाला है,
कभी कुदरत ,हमारे ,फिर करीब होगी क्या
इस कदर हो गया भौतिक है आज का इन्सां ,
दिनों दिन बढ़ती ही जाती है भूख पाने की ,
आज के दौर  में,ये दौड़ ,होड़ की अंधी ,
सभी छोड़ पीछे ,लोग भागते  आगे
हवाओं में कहीं इतना जहर न भर जाए ,
सांस लेने में भी हम सबको परेशानी हो,
अभी भी वक़्त है ,थोड़ा सा हम सम्भल जाएँ ,
देर हो जायेगी ,अब भी जो अगर ना जागे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बड़े बनने की कला

       बड़े बनने की कला

जब तुम अपने से छोटे का वजूद भुला ,
खुद के बड़े होने की बात बताते हो 
तो तुम खुद छोटे हो जाते हो 
पहले ,एक रूपये के चौंसठ पैसे होते थे ,
और एक पैसे की भी तीन पाई थी
जो सबसे छोटी इकाई थी
अधेला,दो पैसा,इकन्नी,दुवन्नी ,
चवन्नी और अठन्नी होती थी
तब एक पैसे की भी वेल्यू होती थी
और रुपैया होता बड़ा दमदार था
वो कहलाता कलदार था
फिर एक रूपये के सौ पैसे हुए,
और धीरे धीरे पैसा छोटा होता गया
तो रुपया भी अपनी अहमियत खोता गया
समय के साथ एक,दो ,पांच,दस और बीस ,
पैसे के सिक्के लुप्त होते गए ,
और फिर चवन्नी की भी नहीं चली
आज अठन्नी का अस्तित्व तो है ,
पर नाममात्र का है,
न जाने कब बंद हो जाए ये पगली
देखलो ,किस तरह दिन फिरते है
सड़क पर पड़ी अठन्नी को उठाने के लिए,
लोग झुकने की जहमत नहीं करते है
जैसे जैसे रुपया ,बड़ी मछलियों की तरह ,
अपनी ही छोटी छोटी मछलियों को खाता गया
अपनी ही कीमत घटाता गया
क्योंकि छोटे के सामने ही ,
बड़ों की कीमत आंकी जाती है
जब कोई छोटी लकीर होती है ,
तभी कोई दूसरी लकीर ,बड़ी कहलाती है
इसलिए ,यदि बड़े बनना है,
तो अपने से छोटे का अस्तित्व बना रहने दो
अपनी इकन्नी,दुअन्नी ,चवन्नी को ,
लुप्त मत होने  दो
अपनी कलदार वाली गरिमा को मत खोने दो
क्योंकि जब तक छोटे है ,
तब तक ही तुम बड़े कहलाओगे
वर्ना एक दिन ,एक छोटी सी इकाई ,
बन कर रह जाओगे
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

सफलता के पेड़े

          सफलता के पेड़े 

करने पड़ते पार रास्ते ,जग के टेढ़े मेढ़े
सहना पड़ते तूफानों के ,हमको कई थपेड़े
पग पग पर बाधायें मिलती अपनी बांह पसारे,
परेशान करते है हमको ,कितने रोज बखेड़े
अगर हौंसला जो बुलंद है,तो किसमे हिम्मत है,
एक बाल भी कोई तुम्हारा ,आये और उंखेडे 
कहते,विद्या ना मिलती है,बिना छड़ी के खाये ,
कान तुम्हारे अगर गुरूजी ने जो नहीं उमेडे 
सुखमय जीवन जीने का है यही तरीका सच्चा ,
शांत रहो, प्रतिकार करो मत,कोई कितना  छेड़े
सच्ची लगन ,बलवती इच्छा और साहस हो मन में ,
तो फिर पार लगा करते है, आसानी  से  बेड़े
कितनी खटपट,कितने झंझट ,हमे झेलने पड़ते ,
तभी सफलता के मिलते है,खाने हमको पेड़े 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है

अपनी आदत कुछ ऐसी है
योगी भी हूँ, भोगी भी हूँ ,
और थोड़ा सा ,ढोंगी भी हूँ,
बहुत विदेशों में घूमा हूँ ,
शौक मगर फिर भी देशी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
पीज़ा भी अच्छा लगता है ,
डोसा भी है मुझको भाता
चाउमिन से स्वाद बदलता ,
और बर्गर खा कर मुस्काता
लेकिन रोज रोज खाने में ,
दाल और रोटी   ही खाता
केक पेस्ट्री कभी कभी ही,
चख लेना बस मुझे सुहाता 
किन्तु जलेबी ,गरम गरम हो,
या गुलाबजामुन रस डूबे,
खुद को रोक नहीं मै पाता ,
गर मिठाई रबड़ी जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
कभी ,नहीं दुःख में रो पाता ,
कभी ख़ुशी में आंसूं आते
मैंने अब तक उम्र गुजारी ,
बस यूं ही ,हँसते,मुस्काते
चेहरे पर खुशियां ओढ़ी है
अपने मन का दर्द छिपाते
थोड़ा चलना अब सीखा हूँ,
धीरे धीरे ,ठोकर  खाते
कितनी बार गिरा,सम्भला हूँ,
पर फिर भी ना हिम्मत हारी ,
मुझे पता है ,टेडी मेढ़ी ,
जीवन की राहें कैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है
 मुझे नहीं बिलकुल आता है,
किसी फटे में टांग अड़ाना 
कोई बेगानी शादी में ,
बनना अब्दुल्ला ,दीवाना
बन मुंगेरीलाल देखना ,
सपना कोई हसीन,सुहाना
डींग मारना बहादुरी की ,
कॉकरोच से पर डर जाना
लाख शेरदिल कहता खुद को ,
लेकिन बीबी से डरता हूँ ,
उसके आगे मेरी हालत,
हो जाती गीदड़ जैसी है
अपनी आदत कुछ ऐसी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बदलाव

               बदलाव

याद हमे वो कर लेते है ,तीज और  त्योंहारों में
ये क्या कम है ,अब भी हम ,रहते है उनके ख्यालों में
एक जमाना होता था जब  हम मिलते थे रोज ,
नाम हमारा पहला होता ,उनके चाहने वालो में
सच बतलाना ,कभी याद कर  ,वो बीते  लम्हे ,
क्या अब भी झन झन होती है ,दिल के तारों में
साथ समय के ,ये किस्मत भी ,रंग बदलती है ,
कितना परिवर्तन आता ,सबके व्यवहारों में
अब ना तो फूलों की खुशबू ,मन महकाती है,
और चुभन भी ना लगती है ,अब तो खारों में
समझ न आता ,मै बदला हूँ,या बदले है आप,
पर ये सच,बदलाव आ गया ,इतने सालों में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आंसू

            आंसू

 व्यथा और खुशियां सारी ,छलकाते आंसूं
दिल के जाने किस कोने से , आते  आंसूं
कहने को तो पानी की  बूँदें  कुछ होती 
आँखों से निकला करती है ,बन कर मोती 
ये कुछ बूँदें गालों पर जब करती ढलका
मन का सारा भारीपन ,हो जाता  हल्का
तो क्या ये अश्रुजल होता इतना भारी
पिघला देती ,जिसे व्यथा की एक चिंगारी
शायद दिल में कोई दर्द जमा रहता है
जो कि पिघलता ,और आंसूं बन कर बहता है
इसमें क्यों होता हल्का हल्का खारापन
क्यों इसके बह जाने से हल्का होता मन
अधिक ख़ुशी में भी ये आँखें भर देते है
प्रकट भावनाएं सब दिल की ,कर देते है
भावों की गंगा जमुना बन बहते आंसूं
दो बूँदों में ,जाने क्या क्या  कहते आंसूं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

थोड़ा सा एडजस्टमेंट

         थोड़ा सा एडजस्टमेंट

थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
पति पर अक्सर रौब जमाने वाली बीबी को,
कभी कभी तो अपने पति से डरना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
भरी ट्रैन के हर डिब्बे में ,हर स्टेशन पर ,
चार मुसाफिर अगर उतरते ,तो छह चढ़ते है
रखने को सामान ,ठीक से पीठ टिकाने को,
थोड़ी जगह ,कहीं मिल जाए ,कोशिश करते है
ट्रैन चली,दो बात हुई ,सब हो जाते है सेट,
सफर जिंदगी का ऐसे ही कटना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान  पराये घर से ,दुल्हन आती है,
उसके घर का अपना कल्चर ,परम्पराएं है
ससुराल में नए लोग है ,वातावरण नया ,
जीवनसंगिनी बना पियाजी उसको लाये है
शुरू शुरू में ,थोड़ी सी  दिक्कत तो आती है,
चार दिनों में वो घर उसको ,अपना लगता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
एक अंजान पुरुष जब  बनता जीवन साथी है ,
उसकी आदत,खानपान का ज्ञान जरूरी है
सच्चे मन से ,एक दूजे को अगर समर्पित हो ,
तभी एकरसता आती है,मिटती दूरी है
कभी ढालना पड़ता उसको अपने साँचे में ,
कभी कभी उसके साँचे में  ढलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है
बच्चे जब छोटे होते ,सब बात मानते है ,
लेकिन उनकी सोच समय के साथ बदलती है
होता है टकराव ,पीढ़ियों के जब अंतर में ,
अपनी जिद पर अड़े रहोगे ,तो ये गलती है
थोड़ा सा झुक जाने से यदि खुशियां आती है ,
तो हंस कर ,हमको उस रस्ते चलना पड़ता है
थोड़ा सा एडजस्टमेंट तो करना पड़ता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तुम्हे अगर जो कुछ होता है...

             तुम्हे अगर जो कुछ होता है...

तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
क्योंकि हमारा और तुम्हारा ,जन्मों जन्मों का नाता है
तुमको जरा पीर होती है ,हम अधीर से हो जाते है
तेज धूप तुमको लगती है ,और इधर हम कुम्हलाते है
 तुम्हारी आँखों में आंसू  ,देख हमारा दिल रोता है
पता नहीं ये क्यों होता है,पर ये सच, ऐसा होता है
चीख हमारी निकला करती ,जब तुमको चुभता काँटा है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
हल्की तुम्हे हरारत होती ,चढ़ जाता बुखार हमे है
 एक हाल में  हम जीते है ,इतना तुमसे प्यार हमे है
चेहरा देख उदास तुम्हारा ,हम पर मायूसी छाती है
तुम गमगीन नज़र आते तो ,अपनी रंगत उड़ जाती है
देख तुम्हारी बेचैनी को ,चैन नहीं ये दिल पाता है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत  कुछ हो जाता है
पर जब जब तुम मुस्काते हो ,मेरा मन भी मुस्काता है
देख ख़ुशी से रोशन चेहरा ,बाग़ बाग़ दिल हो जाता  है
कभी खिलखिला जब तुम हँसते ,दिल की कलियाँ खिल जाती है 
रौनक देख तुम्हारे मुख पर ,मेरी रौनक बढ़ जाती है
देख खनकता मुख तुम्हारा ,मेरा मन हँसता गाता है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है ,हमे बहुत कुछ हो जाता है
हम तुम बने एक माटी के ,एक खून बहता है रग में
तुम पर जान छिड़कता हूँ मैं ,तुम मुझको सबसे प्रिय जग में
यह सब नियति का  लेखा है,बहुत दूर जा बैठे हो तुम
हमको चिता बहुत तुम्हारी ,दिल के टुकड़े ,बेटे हो तुम
लाख दूरियां हो पर खूं का ,रिश्ता नहीं बदल पाता  है
तुम्हे अगर जो कुछ होता है,हमे बहुत कुछ हो जाता है

मदन मोहन बाहेती  'घोटू'

बुधवार, 22 जून 2016

मैं नारी हूँ

 मैं नारी हूँ

मैं विद्या ,संगीत,कविता ,सरस्वती का रूप ,
धन ,वैभव ,ऐष्वर्य दायिनी हूँ,मैं लक्ष्मी  हूँ
मैं ही माता ,मैं ही पत्नी ,मैं ही भगिनी हूँ,
अन्नपूर्णा ,मैं दुर्गा हूँ ,जग की जननी हूँ,
मैं ही धरा हूँ,मैं ही गंगा,मैं ही कालिंदी हूँ,
मैं रति भी हूँ,पार्वती हूँ ,और मैं काली हूँ
मैं शक्ति का रूप मगर मैं क्यों दुखियारी हूँ,
अपनी व्यथा कहूं मैं किस से,मैं तो  नारी हूँ
मातपिता के अनुशासन में बचपन कटता है,
और पति के अनुशासन में कटता यौवन है
बेटे बहू,बुढ़ापे में ,अनुशासित करते है,
क्यों नारी पर ,सदा उमर भर,रहता बंधन है
कभी भ्रूण में मारी जाती ,कभी जन्म के बाद,
कभी दहेज के खतिर मुझे जलाया जाता  है
कभी मुझे बेचा जाता है ,भरे बाजारों में ,
मुझको नोचा जाता है  ,तडफाया जाता है
वरण स्वयंबर में तो मुझको करता अर्जुन है,
पांच पति की भोग्या मुझे बनाया जाता है
भरी सभा में चीरहरण दुःशासन करता है,
जुवे में क्यों ,मुझको दाव लगाया जाता है 
ममता भरी यशोदा सौ सौ आंसूं रोती  है ,
राजपाट पा ,राजाबेटा ,उसे भुलाता है
क्यों राधा की प्रीत भुला कर ,कृश्णकन्हैया भी ,
आठ आठ पटरानी के संग ब्याह रचाता है
इंद्र,रूप धर मेरे पति का,छल करता मुझसे ,
तो पाषाणशिला बन मैं क्यों शापित होती हूँ
क्यों सिद्धार्थ ,बुद्ध बनने को,मुझे त्यागता है ,
यशोधरा मैं ,दुखियारी,जीवन भर रोती हूँ
वन में पग पग साथ निभाने वाली सीता का ,
अगर हरण कर ले रावण,क्या सीता दोषी है
राम युद्ध कर,उसे दिलाते ,मुक्ति रावण से ,
क्यों सतीत्व की उसके अग्नि परीक्षा होती है
लोकलाज के डर से मर्यादा पुरुषोत्तम भी ,
गर्भवती सीता को वन में भिजवा देते है 
रामचरितमानस में तुलसी कभी पूजते है ,
कभी ताड़ना का अधिकारी ,उसको कहते है
भातृप्रेम में लक्ष्मण ,भ्राता संग वन जाते है ,
चौदह बरस उर्मिला ,विरहन,रहती रोती  है
जीवन को गति देनेवाली ,देवी स्वरूपा की,
युगों युगों से ,फिर क्यों ऐसी,दुर्गति होती है
ऊँगली पकड़ सिखाती चलना अपने बच्चों को,
सदाचरण का पाठ पढ़ाती,पहली शिक्षक है
पति प्रेम में पतिव्रता बन ,जीती मरती है,
अनुगामिनी मात्र नहीं,वह मार्ग प्रदर्शक है
मैं  सुखदात्री,अपने पति की सच्ची साथी हूँ,
फिर क्यों दुनिया कहती मै अबला ,बेचारी हूँ
मैं शक्ति का रूप, मगर मैं क्यों दुखियारी हूँ  ,
अपनी व्यथा कहूं मैं किससे ,मैं तो नारी हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

स्मार्ट फोन

 स्मार्ट फोन

जवान होती हुई बेटी, कई दिनों से ,
स्मार्टफोन की जिद कर  रही थी
पर ये बात ,उसके पिता के गले,
 नहीं उतर रही थी
उनकी सोच थी कि स्मार्ट फोन आने से ,
उनकी बेटी उसकी 'एडिक्ट 'हो जाएगी
दिन भर फेसबुक ,व्हाट्सएप में उलझी रहेगी,
पढ़ाई से उसकी रूचि खो जाएगी
माँ ने अपने पति को समझाया
हमने उसको इतना पढ़ाया,लिखाया
कुकिंग की क्लासेस दिलवाई,
होम मैनेजमेंट के गुण  सिखलाये
इसीलिये ना ,कि शादी के बाद ,
वो अपनी गृहस्थी ,ठीक से चला पाये
अब उसे स्मार्टफोन दिलवा दो ,
क्योंकि ये भी ,शादी के बाद ,
सुखी जीवन जीने की कला सिखाता है
इससे ,ऊँगली के इशारों पर ,
दुनिया को नचाने का ,आर्ट आ जाता है
और शादी के बाद ,यदि उसे सुख चाहिए
तो उसे ,अपने पति को ,उँगलियों पर ,
नचाने की कला आनी  चाहिए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शौक़ीन बुढ्ढे

       शौक़ीन बुढ्ढे  

ये बुढ्ढे बड़े शौक़ीन होते है
मीठी मीठी बातें करते है मगर नमकीन होते है
ये बुढ्ढे  बड़े शौक़ीन होते है
यूं तो सदाचार के लेक्चर झाड़ते है
पर  मौक़ा मिलते ही ,
आती जाती लड़कियों को  ताड़ते है
देख कर  मचलती जवानी
इनके मुंह में भर आता है पानीे 
और फिर जाने क्या क्या ख्वाब  बुनते   है
फिर अपनी मजबूरी को देख ,अपना सर धुनते है
पतझड़ के पीले पड़े पत्ते है ,जाने कब झड़ जाएंगे
पर हवा को देखेंगे,तो हाथ हिलाएंगे
जीवन की आधी अधूरी तमन्नाये,
उमर के इस मोड़ पर आकर, कसमसाने   लगती है
जी  चाहता है ,बचीखुची सारी हसरतें पूरी कर लें,
पर उमर आड़े  आने लगती है
समंदर की लहरों की तरह ,कामनाएं,
किनारे पर थपेड़े खाकर ,
फिर  समंदर में विलीन हो जाती है
क्योंकि काया इतनी क्षीण हो जाती है
जब गुजरे जमाने की यादें आती  है
बड़ा तडफाती है
कभी कभी जब बासी कढ़ी में उबाल आता है
मन में बड़ा मलाल आता है
देख कर के मॉडर्न लिविंग स्टाइल
तड़फ उठता  होगा उनका दिल
क्योंकि उनके जमाने में ,
 न टीवी होता था ,ना ही मोबाइल 
न फेसबुक थी न इंटरनेट पर चेटिंग
न लड़कियों संग घूमना फिरना ,न डेटिंग
माँ बाप जिसके पल्ले बाँध देते थे
उसी के साथ जिंदगी गुजार देते थे
पर देख कर के आज के हालात
क्या भगवान उन्हें साठ साल बाद ,
पैदा नहीं कर सकता था ,ऐसा सोचते होंगे
और अपनी बदकिस्मती पर ,
अपना सर नोचते होंगे
उनके जमाने में
मिलती थी खाने में
वो ही दाल और रोटी अक्सर
उन दिनों ,कहाँ होता था,
पीज़ा,नूडल और बर्गर
आज के युग की लोगों की तो चांदी है
उन्हें दुनिया भर के व्यंजन  खाने की आजादी है
आज का रहन सहन ,
ये वस्त्रों का खुलापन
और उस पर लड़कियों का ,
ये बिंदास आचरण
उनके मुंह में पानी ला देता होगा
बुझती हुई आँखों को चमका देता होगा
ख्यालों से मन  बहला देता होगा
जब भी किसी हसीना के दीदार होते है
ये फूंके हुए कारतूस ,
फिर से चलने को तैयार होते है
अपने आप को जवान  समझ कर ,
बुने गए इनके सपने ,बड़े रंगीन होते है
ये बुढ्ढे ,बड़े शौक़ीन होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



 
  

सेंटिमेंटल बुढ्ढे

सेंटिमेंटल बुढ्ढे

ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
जो बच्चे उन्हें याद तक  करते,
उन्ही की याद में रोते  है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
ये ठीक है उन्होंने बच्चों को पाला पोसा ,
लिखाया ,पढ़ाया
आगे बढ़ाया
तो ऐसा कौनसा  अहसान कर दिया
यह तो उनका कर्तव्य था ,जब उनने जन्म दिया
अपने लगाए हुए पौधे को ,सभी सींचते है ,
यही सोच कर कि ,फूल खिले,फल आएं
सब की  होती है ,अपनी अपनी अपेक्षाएं
तो क्या बच्चे बड़े होने पर ,
श्रवणकुमार बन कर,
पूरी ही करते रहें उनकी अपेक्षाएं
और अपनी जिंदगी ,अपने ढंग से न जी पाएं
उनने अपने ढंग से अपनी जिंदगी जी है ,
और हमे अपने ढंग से ,जिंदगी करनी बसर है
हमारी और उनकी सोच में और जीने के ढंग में ,
पीढ़ी का अंतर है
उनके हिसाब से अपनी जिंदगी क्यों बिताएं
हमें पीज़ा पसंद है तो सादी रोटी क्यों खाएं
युग बदल गया है ,जीवन पद्धति बदल गयी है
हम पुराने ढर्रे पर चलना नहीं चाहते,
हमारी सोच नयी है
और अगर हम उनके हिसाब से  नहीं चलते है,
तो मेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
हर बात में शिक्षा ,हर बात में ज्ञान  
क्या यही होती है बुजुर्गियत की पहचान
हर बात पर  उनकी रोकटोक ,
सबको कर देती है परेशान
आज की मशीनी जिंदगी में ,
किसके पास टाइम है कि हर बार
उन्हें करे नमस्कार
हर बात पर उनकी सलाह मांगे
उनके आगे पीछे भागे
अरे,उनने अपने ढंग से  अपनी जिंदगी बिताली
और अब जब बैठें है खाली
कथा भागवत सुने,रामायण पढ़े
हमारे रास्ते में न अड़े
उनके पास टीवी है ,कार है
पैसे की कमी नहीं है
तो राम के नाम का स्मरण करें ,
उनके लिए ये ही सही है
क्योंकि जिस लोक में जाने की उनकी तैयारी है ,
वहां ये ही काम आएगा
साथ कुछ नहीं जाएगा
और ऐसा भी नहीं कि हम ,
उनके लिए कुछ नहीं करते है
'फादर्स डे 'पर फूल भेजते है ,गिफ्ट देते है
त्योंहारों पर उनके चरण छूते  है
और फंकशनो में 'वीआईपी 'स्थान देते है
हमे मालूम है कि हम उनके लिए कुछ करें न करें ,
वे हमेशा हमे आशीर्वाद बरसाते  रहेंगे
हमारी परेशानी में परेशान नज़र आते  रहेंगे
उनकी कोई भी बददुआ हमे मिल ही नहीं सकती ,
क्योंकि ये बड़े जेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े  सेंटिमेंटल होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'