पृष्ठ

सोमवार, 27 जून 2016

नहीं समझ में आया

   

चार दिनों  के इस जीवन में  ,इतनी खटपट करके ,
क्यों की इतनी भागा दौड़ी ,नहीं समझ में  आया 
खाली हाथों आये थे और खाली हाथों  जाना ,
फिर क्यों इतनी माया जोड़ी ,नहीं समझ में आया 
ऐसे ,वैसे ,जैसे तैसे ,हम उनका दिल जीतें ,
हमने कोई कसर न छोड़ी ,नहीं समझ में आया 
न तो गाँठ में फूटी कौड़ी ,ना ही तन में दम है,
फिर भी बातें लम्बी चौड़ी ,नहीं समझ में आया 
शादी का लड्डू खाओ या ना खाओ ,पछताओ,
फिर भी मै चढ़ बैठा घोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
मुझे प्यार जतलाना अच्छा ,लगता,वो चिढ़ते है,
कैसी राम मिलाई जोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया  
दूर  के पर्वत लगे सुहाने ,पास आये तो पत्थर ,
हमने यूं ही टांगें तोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 
अच्छे कल की आशा में ,बेकल हो जीवन जिया ,
बीत गई ये उमर निगोड़ी ,समझ नहीं कुछ आया 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।