पीड़ा-टूटे आईने की
मुझे अब याद आते है ,वो दिन कितने सुहाने थे,
मेरे ही सामने आकर ,संवरती थी, हसीनाएं
बड़ी नटखट निराली शोखियों से,कई कोणों से,
गठीले जिस्म को अपने,निरख़ती थी हसीनाएं
दिखाती थी कई नखरे,अदा से मुस्कराती थी ,
कभी खुद पे फ़िदा ,खुद को चूमा करती थी,हसीनाएं
कभी नयनों के खंजर पे,धार करती थी कजरे से,
नज़र तिरछी से दिल पर वार ,करती थी हसीनाएं
लगा के लाली होठों पर ,सुलगती आग भरती थी,
जलाती सब के दिल को ,खुद भी जलती थी ,हसीनाएं
बसा करता था उनका अक्स ,मेरे जिस्म के अंदर ,
नहीं मुझसे कभी भी शर्म ,करती थी ,हसीनाएं
मगर देखा उन्हें बेशर्मी से ,अठखेलियां करते ,
गैर के संग ,तो दिल टुकड़े टुकड़े हो गया मेरा
आज भी मेरे हर टुकड़े में जो वो झाँक कर देखें ,
बसा है अक्स उनका ही और वो,सुन्दर,हसीं चेहरा
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
मुझे अब याद आते है ,वो दिन कितने सुहाने थे,
मेरे ही सामने आकर ,संवरती थी, हसीनाएं
बड़ी नटखट निराली शोखियों से,कई कोणों से,
गठीले जिस्म को अपने,निरख़ती थी हसीनाएं
दिखाती थी कई नखरे,अदा से मुस्कराती थी ,
कभी खुद पे फ़िदा ,खुद को चूमा करती थी,हसीनाएं
कभी नयनों के खंजर पे,धार करती थी कजरे से,
नज़र तिरछी से दिल पर वार ,करती थी हसीनाएं
लगा के लाली होठों पर ,सुलगती आग भरती थी,
जलाती सब के दिल को ,खुद भी जलती थी ,हसीनाएं
बसा करता था उनका अक्स ,मेरे जिस्म के अंदर ,
नहीं मुझसे कभी भी शर्म ,करती थी ,हसीनाएं
मगर देखा उन्हें बेशर्मी से ,अठखेलियां करते ,
गैर के संग ,तो दिल टुकड़े टुकड़े हो गया मेरा
आज भी मेरे हर टुकड़े में जो वो झाँक कर देखें ,
बसा है अक्स उनका ही और वो,सुन्दर,हसीं चेहरा
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।