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रविवार, 18 अगस्त 2013

तुम वैसी की वैसी ही हो

     तुम वैसी की वैसी ही हो

जब तुम सोलह सत्रह की थी,कनक छड़ी सी सुन्दर थी ,
हुई बीस पच्चीस बरस की ,बदन तुम्हारा गदराया
फिर मेरे घर की बगिया में ,फूल खिलाये ,दो प्यारे,
और ममता की देवी बन कर ,सब घर भर को महकाया
रामी गृहस्थी में फिर ऐसी ,बन कर के अम्मा,ताई
तुम्हारे कन्धों पर आई,घर भर की जिम्मेदारी
रखती सबका ख्याल बराबर ,और रहती थी व्यस्त सदा ,
लेकिन पस्त थकीहारी भी,लगती थी मुझको प्यारी
फिर बच्चों की शादी कर के ,सास बनी और इठलाई,
पर मेरे प्रति,प्यार तुम्हारा ,वो का वोही रहा कायम
वानप्रस्थ की उमर हुई पर हम अब भी वैसे ही हैं,
इस वन में मै ,खड़ा वृक्ष सा ,और लता सी लिपटी  तुम
तन पर भले बुढ़ापा छाया ,मन में भरी जवानी है ,
वैसी ही मुस्कान तुम्हारी,वो ही लजाना ,शरमाना
पहले से भी ज्यादा अब तो ,ख्याल मेरा रखती हो तुम,
मै भी  तो होता जाता हूँ,दिन दिन दूना ,दीवाना
वो ही प्यारी ,मीठी बातें,सेवा और समर्पण है ,
वो ही प्यार की सुन्दर मूरत ,अब भी पहले जैसी हो
वो ही प्रीत भरी आँखों में ,और वही दीवानापन ,
पेंसठ की हो या सत्तर की ,तुम वैसी की वैसी  हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

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