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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

ख्वाब क्या अपनाओगे ?

प्रत्यक्ष को अपना न सके, ख्वाब क्या अपनाओगे;
बने कपड़े भी पहन न पाये, नए कहाँ सिलवाओगे |

दुनिया उटपटांगों की है, सहज कहाँ रह पावोगे,
हर हफ्ते तुम एक नई सी, चोट को ही सहलाओगे |

सारे घुन को कूट सके, वो ओखल कैसे लावोगे,
जीवन का हर एक समय, नारेबाजी में बिताओगे |

जीवन भर खुद से ही लड़े, औरों को कैसे हराओगे,
मौके दर मौके गुजरे हैं, अंत समय पछताओगे |

गमों को हंसी से है छुपाया, आँसू कैसे बहाओगे,
झूठ का ही हो चादर ओढ़े, सत्य किसे बतलाओगे |

सीख न पाये खुद ही जब, क्या औरों को सिखलाओगी,
बने हो अंधे आँखों वाले, राह किसे दिखलाओगे |

व्यवस्था यहाँ की लंगड़ी है, क्या लाठी से दौड़ाओगे,
बोल रहे बहरे के आगे, दिल की कैसे सुनाओगे |


हक खुद का लेने के लिए भी, हाथ बस फैलाओगे,
भीख मांगने के ही जैसा, हाथ जोड़ गिड़गिड़ाओगे |

लोकतन्त्र के राजा तुम हो, प्रजा ही रह जाओगे,
कृतघ्न हो जो वो प्रतिनिधि, खुद ही चुनते जाओगे |

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति...
    इस लंगड़ी व्यवस्था का दौड़ना तो दूर अब तो चलना भी मुश्किल हो गया है।

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  2. आपकी यह कविता मन को आंदोलित कर गई । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

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  3. aaj ke haalato par behtar rachna ....
    http://ehsaasmere.blogspot.in/

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  4. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं। धन्यवाद।

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  5. अधिकार ,किसी की कृपा नहीं जो भीख माँग कर लिये जाएँ अपनी सामर्थ्य से वसूल किये जाते हैं !

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  6. आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी। मेरे नए पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। नव वर्ष 2013 की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ। धन्यवाद सहित।

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  7. आज की व्यवस्था पे करारा कटाक्ष
    बहुत शानदार लेखन

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  8. बहुत खूब!
    आज की कुव्यवस्था पर तीखे कटाक्ष करती हुई कविता.

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