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दूरियॉ
वर्ष 1985 के लगभग लिखी निम्न पंक्तियों को आपके साथ साझा कर रहा हूँ
विकास के युग में माना घट गयी हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की अब बढ गयी हैं दूरियॉ ।।
सूर्य का गोला लटकता है हर इक छत से जरूर ।
किन्तु इतने पास अब रहते नहीं है दिल हुजूर ।।
चॉद तक जाने लगे हैं यान माना बेलगाम ।
पर धरा के चॉद का अब रह गया है सिर्फ नाम ।।
संसार आकर है सिमटता हर सुबह इस मेज पर ।
क्या हुआ अपने बगल में जानेंगे पढकर खबर ।।
शोर पुर्जों का हुआ है इस कदर कुछ बेअदब ।
पंछियों का मधुर कलरव खो गया इसमें अजब ।।
अब धरा लगती खिलौना यूँ सहज हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की पर बढ गयी हैं दूरियॉ।।
भाई कुछ edit की जरुरत है |
जवाब देंहटाएंखुबसूरत प्रस्तुति ||
बधाई ||
रविकर जी
जवाब देंहटाएंमुझे प्रसन्नता होगी यदि आप इसमें आवष्यक
संशोधन कर देगे
आभारी रहूँगा
संशोहन की कोई आवश्यकता नही है । दिल की बात समझ में आ गई यही काफी है । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंBehtarin rachna.
जवाब देंहटाएंनीचे से चौथी पंक्ति में अभी भी जरुरत है |
जवाब देंहटाएंप्रिंटिग की तरफ इशारा है मेरा ||
कोई काव्यात्मक या भावनात्मक कमी नहीं है ||
सही कहा है आपने।
जवाब देंहटाएंवाह अशोक जी, क्या बात कही, "क्या हुया अपने बगल में जानेंगे पढ़कर खबर"
जवाब देंहटाएंMy Blog: Life is Just a Life
My Blog: My Clicks
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सुन्दर रचना | बधाई |
जवाब देंहटाएंजी आभार |
जवाब देंहटाएंतब की लिखी एक बेहतरीन रचना
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