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गुरुवार, 10 जून 2021

क्या यह भी जीना है 

अपनी इच्छाओं पर बस कर 
यूं ही जीना तरस तरस कर 
क्या हम को हक नहीं बुढ़ापा,
अपना कांटे ,हम हंस-हंसकर 

बाकी सब तो ठीक-ठाक है 
लेकिन तन तंदुरुस्त नहीं है 
ना है पहले सा फुर्तीला ,
सुस्त पड़ा है , चुस्त नहीं है 

ये मत खाओ वो मत पियो 
लगी हुई हम पर पाबंदी 
तन के द्वारों पर रोगों ने 
लगा रखी है नाकाबंदी 

आंखों में जाला छाया है 
श्रवण शक्ति भी हुई मंद है 
चलते हैं तो सांस फूलती,
और दर्द दे रहे दंत हैं 

किडनी लीवर आमाशय के 
कारण पीड़ित अन्य द्वार हैं 
कमजोरी ने घेर रखा है 
तन और मन दोनों बीमार हैं  

ऐसी कठिन परिस्थितियों में 
जीना होता कितना दुष्कर
फिर भी बच्चे कहते पापा ,
जिओ खुशी से तुम हंस-हंसकर 

सुबह शाम दोपहर दवाई,
आधा पेट इन्ही से भरता 
फिर भी झेल रहे हैं यह सब 
मरता क्या न भला है करता 

भुगत रहे जो लिखा भाग्य में
 यूं ही किसी को हम क्यों कोसें
 छोड़ दिया है हमने अब तो ,
 सब कुछ ही भगवान भरोसे 
 
उबला खाना, बिना मसाला 
दूध चाय फीका पीना है 
इसको ही जीना कहते हैं 
तो फिर ऐसे ही जीना है

मदन मोहन बाहेती घोटू

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