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सोमवार, 6 अगस्त 2018

बचपन के स्कूल-टीचर की मार 

बचपन की पुरानी यादें ,
जब मेरे मानसपटल पर दौड़ती है 
तो मास्टरजी की मार और टीचरों की डाट ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती है  
जिन्होंने मुझे डाट डाट कर ढीठ बना दिया था 
आज की परिस्तिथियों के अनुकूल ,
एकदम ठीक बना दिया था 
इसी शिक्षण के कारण आज मैं ,
बिना सेंटीमेंटल हुए ,
अपने बॉस की डाट सुन पाता हूँ 
और जब बीबी डाटती है ,
तो भी मुस्कराता हूँ 
बचपन में स्कूल की शैतानियों में 
आता था बड़ा मज़ा 
पर उसके बाद हमें झेलनी पड़ती थी 
मास्टरजी की सजा 
और इन सजाओं के होते थे अनेक प्रकार 
पर सबसे खतरनाक होती थी ,
मास्टरजी की छड़ी की मार 
हम काँप जाते थे जब वो कहते थे हाथ बढ़ाओ 
अपनी गलती पर दो बेंते खाओ 
और उनकी छड़ी की मार से ,
हम सहम सहम जाते थे 
अलग अलग अध्यापक अलग अलग ढंग से ,
अपनी अपनी सजा सुनाते थे 
एक पूछते थे कल का पाठ सुनाओ 
नहीं बता पाये तो बेंच पर खड़े हो जाओ 
हम बेहया से बेंच पर खड़े खड़े मुस्कराते थे 
और मास्टर जी ने देख लिया तो 
कक्षा से निकाल दिए जाते थे 
इस सजा का हम बड़ा मजा उठाते थे मुस्कराकर 
जब तक दूसरा पीरियड आता ,
स्कूल के बाहर जा ,
चले आते थे चने की चाट खाकर 
एक टीचर ,दो उंगुलियों के बीच ,
पेंसिल रख कर उंगुलियों से दबाती थी 
सच बड़ा दर्द होता था ,चीख निकल जाती थी 
और जब हम क्लास में शोर कर,चुप नहीं बैठते थे 
तो इतिहास वाले अध्यापकजी ,हमारे कान ऐंठते थे 
कोई टीचर जब हमें क्लास में ,
किसी से बाते करते हुए पाते थे 
तो दोनों को बेंच पर खड़ा करवा कर ,
एक दुसरे के कान खिंचवाते थे 
गणित वाले टीचर गलती होने पर ,
गालों  पर चपत मारते थे 
अपने घर की भड़ास ,
स्कूल के बच्चों पर निकालते थे 
हिंदी वाले पंडितजी शुद्ध शाकाहारी थे 
पर जब वो कुपित हो जाते थे 
तो सजा 'नॉनवेजिटेरियन ' सुनाते  थे 
और हमें क्लास में मुर्गा बनाते थे 
कोई  एक फुटे वाली स्केल से मारता था ,
जब हमें शरारत करते हुए देखता था 
कोई पीठ पर धौल मारता था 
तो कोई जोर से चाक फेकता था 
उन दिनों 'छड़ी पड़े छम छम 
,विद्या आवे घम घम 'वाला कल्चर था 
सच ,उसमे बड़ा असर था 
मार के डर  से बच्चो में सुधार होता था 
ये सजा नहीं ,मास्टरजी का प्यार होता था 
उन सजाओं ने हमें जीवन में ,
मुसीबत झेलने का पाठ पढ़ाया है 
आज के जीवन में 'स्ट्रगल 'करना सिखाया है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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