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बुधवार, 1 नवंबर 2017

तुम रहो हमेशा सावधान 

वह कलकल करती हुई नदी 
तट  की  मर्यादा बीच   बंधी 
उसकी सुन्दरता ,अतुलनीय 
वह सुन्दर,सबको बहुत प्रिय 
मैं था सरिता को सराह रहा 
एक वृक्ष किनारे ,कराह रहा 
बोला ,तुम देख रहे कल कल 
पर मैंने देखा है बीता  कल 
जब इसमें आता है उफान 
मर्यादाओं का छोड़  भान 
जब उग्र रूप है यह धरती 
सब कुछ है तहस नहस करती  
जैसे शीतल और मंद पवन 
मोहा करती है सबका  मन 
पर जब तूफ़ान बन जाती है 
तो कहर गजब का ढाती है 
है मौन  शांत  धरती माता 
पर जब उसमे  कम्पन आता 
तब  आ जाती ऐसी तबाही 
सब कुछ हो जाता धराशायी 
सुंदर,सज धज कर मुस्काती 
पत्नी सबके ही मन भाती 
जीवन में खुशियां भरती है 
पर उग्र रूप जब धरती है 
तो फिर वह कुपित केकैयी बन 
जिद मनवाती ,जा कोप भवन 
पति असहाय हो दशरथ सा 
लाचार बहुत और बेबस सा 
माने पत्नी की जिद हरेक 
बनवास बने ,राज्याभिषेक 
ये नदी,हवा,धरती,नारी 
जिद पर आती ,पड़ती भारी 
कब बिगड़ जाय ,ना रहे ज्ञान 
तुम रहो हमेशा  सावधान 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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