कभी कभार
हाय हाय कर हाथ हिलाती
बाय बाय कर हाथ हिलाती
कभी कभार हाथ से मेरे ,
अपने कोमल हाथ मिला दो
चढ़ी सदा रहती हो सर पर
चैन न लेने देती पल भर
कभी कभार ढील देकर तुम,
मेरे दिल का कमल खिला दो
मुझ से रहती सदा झगड़ती
सारा दोष मुझी पर मढ़ती
रहती हरदम तनी तनी सी ,
कभी कभार झुको तो थोड़ा
कभी कभार नैन मिल जाए
कभी कभार चैन मिल जाए
हरदम भगती ही रहती हो,
कभी कभार रुको तो थोड़ा
रोज रोज ही घर का खाना
वो ही रोटी,दाल पकाना
कभी कभार किसी होटल में ,
स्वाद बदलने का मौक़ा दो
रोज शाम तक थकी थकी सी
रहती हो तुम पकी पकी सी
कभी कभार मिलो सजधज कर ,
मुझको भी थोड़ा चौंका दो
काम धाम में सदा फंसी तुम
रहती घर में घुसी घुसी तुम
कभी कभार निकल कर घर से,
साथ घूमने जाएँ हम तुम
घर का बंधन ,जिम्मेदारी
यूं ही उमर बिता दी सारी
कभी कभार बाहों में भर कर ,
मुझको बंधन में बांधो तुम
जिन होठों पर सदा शिकायत
और बक बक करने की आदत
कभी कभार उन्ही होठों से ,
दे दो मुझे प्यार से चुंबन
जिन आँखों का एक इशारा
मुझे नचाता दिन भर सारा
कभी कभार उन्ही आँखों से,
कर दो थोड़ा प्यार प्रदर्शन
लगे एक रस जब ये जीवन
तब आवश्यक है परिवर्तन
कभी कभार 'ब्रेक' जब मिलता,
तो कितना अच्छा लगता है
थोड़ी थोड़ी रोक टोक हो
थोड़ी थोड़ी नोक झोंक हो
कभी कभार अगर झगड़ा हो,
प्यार तभी सच्चा लगता है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
उम्दा ! सृजन आभार ,"एकलव्य"
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