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सोमवार, 29 मई 2017

दास्ताने मजबूरी 

कभी हम में भी तपिश थी ,आग थी,उन्माद था ,
      गए अब वो दिन गुजर ,पर भूल हम पाते  नहीं 
तमन्नाओं ने बनाया इस कदर है बावला ,
      मचलता ही रहता है मन ,पर हम समझाते नहीं 
जब महकते फूल दिखते या चटकती सी कली,
      ये निगोड़े  नयन  खुद पे ,काबू  रख  पाते  नहीं 
हमारी मजबूरियों की इतनी सी है दास्तां ,
       चाहते है चाँद  ,जुगनू  तक पकड़  पाते  नहीं 

घोटू  

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