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शनिवार, 14 जनवरी 2017

कागज की नाव 

बचपन में 
बारिश के मौसम में 
जब बहते परनाले ,
बन जाते थे नन्ही नदिया 
मैं तैराता था उसमे ,
कागज़ की नैया 
और गीली माटी में ,
नंगे पैरों ,छपछप करता हुआ ,
उसके पीछे दौड़ा करता था 
और जब तक वो आँखों से ,
ओझल नहीं हो जाती ,
पीछा नहीं छोड़ा करता था 
फिर नयी  नाव बना कर तैराता 
पूरी बारिश,यही सिलसिला चला जाता 
आज सोचता हूँ ,
मैंने जीवन भर ये ही तो किया है 
कोई न कोई कागज की नाव के पीछे दौड़ ,
अब तक जीवन जिया है 
हाँ,नैयायें बार बार बदलती गयी 
कुछ डूबती गयी  ,कुछ आगे बढ़ती गयी 
कभी पढ़लिख कर डिग्री पाने की नाव थी 
कभी अच्छी नौकरी पाने की चाह थी 
या फिर गृहस्थ जीवन जमाना था 
बाद में अपनी जिम्मेदारियां निभाना था 
इन चक्करों में ,कितनी ही ,
हरे और गुलाबी नोटों की नाव के पीछे दौड़ा
उनका पीछा नहीं छोड़ा 
और उमर के इस दौर में ,
जब मैं पक गया हूँ 
कागज़ के नावों के पीछे,
 दौड़ते दौड़ते थक गया हूँ  
 आज मुझे एक ऐसी नाव की तलाश है ,
जो मुझसे कहे 
मेरे पीछे तुम बहुत दौड़ते रहे 
आओ,आज मैं  तुम्हारी थकान मिटा देती हूँ 
तुम मुझमे बैठ जाओ. ,
मैं तुम्हे बैतरणी पार करा देती हूँ 

मदनमोहन बाहेती'घोटू '

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