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शनिवार, 7 मई 2016

छत

                       छत

याद गाँव के घर आते जब ,हर एक घर पर छत होती थी
सर्दी ,गर्मी  हो  या  बारिश, हर  ऋतु  मे ,राहत  होती थी
जहां रोज सूरज की किरणे, अठखेलियां किया करती थी
शीतल ,मंद हवाएं अक्सर ,सुबह कुलांचे आ भरती  थी
बारिश की पहली रिमझिम में,यहीं भीज ,नाचा करते थे
और गर्मी वाली रातों में ,सांझ ढले ,बिस्तर  लगते थे
जहां मुंडेर पर बैठ सवेरे ,कागा देता था सन्देशा
करवा चौथ,तीज के व्रत में ,चाँद देखते ,वहीँ हमेशा
दिन में दादी,अम्मा,चाची ,बैठ यहां पंचायत करती
गेहूं बीनती,दाल सुखाती ,दुनिया भर की बातें करती
घर के धुले हुए सब कपड़े ,अक्सर ,यहीं सुखाये जाते
उस छत पर  मैंने सीखा ,कैसे नयन लड़ाये  जाते
सर्दी में जब खिली धूप में ,तन पर मालिश की जाती थी
तभी पड़ोसन ,सुंदर लड़की ,बाल सुखाने को आती थी
नज़रों से नज़रें मिलती थी ,हो जाता था नैनमटक्का
और इशारों में होता था ,कही मिलन का ,वादा पक्का
कभी लड़ाई,कभी दोस्ती,कितने ही रिश्ते जुड़ते थे
और यहीं से पतंग उड़ाते ,आसमान में हम उड़ते थे
किन्तु गाँव को छोड़ ,शहर जब,आया कॉन्क्रीट जंगल में
छत तो मिली,मगर छत का सुख ,नहीं उठा पाया पल भर मैं
मेरी छत,कोई का आंगन,उसकी छत पर कोई का घर
मुश्किल से सूरज के दर्शन ,खिड़की से हो पाते ,पल भर
बहुमंजिली इमारतों का ,ऐसा जंगल खड़ा हो गया
हम पिंजरे में बंद हो गए ,छत का सब आनंद खो  गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 


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