पृष्ठ

बुधवार, 23 मार्च 2016

आशिक़ी और होली

       आशिक़ी और होली

जलवा दिखा के हुस्न का ,हमको थी जलाती ,
   ये जान कर भी  रूप पर ,उनके हम  फ़िदा  है
हमको न घास डालती थी जानबूझ कर ,
      हम समझे हसीनो की ये भी कोई अदा  है
देखा जो किसी और को बाहों में हमारी ,
      मारे जलन के ,दिलरुबा ,वो खाक हो गयी
प्रहलाद सलामत रहा,होलिका जल गयी,
       ये तो पुरानी,  होली वाली ,बात हो गयी

घोटू  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।