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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

बदलता बचपन और आज

           बदलता बचपन और आज

रह रह मुझे याद आता है,अपना सुन्दर,प्यारा  बचपन
चहल  पहल रहती थी घर में,पांच सात थे भी बहन हम
एक दूसरे  का ,आपस में  ,हरदम ध्यान रखा जाता था
धीरे धीरे ,स्वावलम्बी , बनना सबको  आ  जाता  था
देख देख कर ,एक दूजे को ,खुद ही बहुत सीख जाते थे  
लाइन लगा ,बैठ चौके में  ,गरम गरम खाना खाते थे
बड़े भाई के ,छोटे कपड़े ,माँ छोटों को पहनाती थी 
और बड़ों की सभी किताबें ,छोटों के भी काम आतीं थी
वर्किग है माँ बाप आजकल,इतना बदला रहन सहन है
अब बच्चे 'क्रैचों 'में पलते ,एकाकी,ना भाई बहन  है
भाई बहन की भीड़ भाड़ में ,तब बच्चे खुद पल जाते थे
कर आपस मे ,सलाह,मशवरा ,आगे बहुत निकल जाते थे
शिशु आजकल 'क्रैचों 'में,फिर बोर्डिंग में  डाले  जाते है
प्यार नहीं ,वैभव दिखला कर,अब बच्चे पाले जाते है
दौड़ कॅरियर की फिर उनको,कामो मे इतना उलझाती
जीवन की इस उहापोह में,आत्मीयता, पनप न पाती
हमने उनका बचपन छीना ,उसका हमे मिल रहा बदला
आज हमारी संतानो का ,है रुख काफी बदला  बदला
व्यस्त बहुत माँ बाप हो गए ,बच्चो के हित समय नहीं है
बड़े हुए तो मात पिता हित ,बच्चों को भी समय नहीं है 
जैसा किया ,भुगतते वैसा,अंतर अधिक न उनमे,हममे
हमने भेजा 'क्रैच 'बोर्डिंग ,भेज रहे वो  वृद्धाश्रम  में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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