पृष्ठ

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

शादी और घरवाली

                   शादी और घरवाली

 हर औरत का ,अपने  अपने ,घर में राज हुआ करता है
हर औरत का अपना अपना ,एक अंदाज हुआ करता है
कभी प्यार की बारिश करती,और कभी रूखी रहती  है
जब भी सजती और संवरती ,तारीफ़ की भूखी रहती है
उसका मूड बिगड़ कब जाए ,मुश्किल है यह बात जानना
यह होता  कर्तव्य पति का, पत्नी   की हर बात मानना
हम सगाई  में पहनाते है ,एक ऊँगली में एक अंगूठी 
बाकी तीन उँगलियाँ उनकी,इसीलिये रहती है रूठी
जो शादी के बाद हमेशा ,बदला लेती है गिन गिन कर
अपने एक इशारे पर वो ,हमें नचाती है जीवन भर
शादी समय ,आँख के आगे ,जो सेहरा पहनाया जाता
नज़रे इधर उधर ना ताके ,ये प्रतिबन्ध लगाया जाता
उनके आगे किसी सुंदरी ,को जो देखें नज़र उठा कर
तो परिणाम भुगतना पड़ता ,है हमको अपने घर आकर
फिर भी कभी कभी गलती से ,यदि हो जाती ये नादानी
तो फिर समझो ,चार पांच दिन,बंद हो जाता हुक्का पानी
उनके साथ,सात ले फेरे, अग्नि कुण्ड के काटे चक्कर
उनके आगे पीछे हरदम ,घूमा करते बन घनचक्कर
प्रेम,मिलन की,और शादी  की,जितनी भी होती है रस्मे
कस निकालती है कस कस कर ,शादी में जो खाते कसमें
पत्नी से मत  करो बगावत,वरना खैर नहीं तुम्हारी
शादी करके,सांप छुछुंदर ,जैसी होती  गति हमारी 
शादी है  बूरे  के लड्डू  ,सभी चाहतें है वो खायें
जिसने खाए वो पछताए ,जो ना खाए ,वो पछताए 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।