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गुरुवार, 19 जून 2014

मिटटी का चूल्हा

       

याद मुझे आता गाँव का,वो मिटटी वाला चूल्हा ,
       जिसमे गोबर के कंडे और सूखी  लकड़ी जलती थी 
मुंह में स्वाद घूमता है उस,सोंधी सौंधी रोटी  का,
        जो लकडी के अंगारों पर ,सिक कर फूला करती थी    
सुबह सुबह चूल्हा सुलगाना ,फूंक फूंक कर फुँकनी से ,
        मुझे याद है अच्छी खासी ,एक कवायत  होती थी 
बारिश में भीगी लकड़ी  जब अग्नी नहीं पकड़ती थी,
         चौके में  धुंवे  के मारे  कितनी  आफत  होती  थी
हम सबके खाने के पहले ,एक अंगारा लेकर के ,
         उस पर डाल ज़रा सा  घी माँ,अग्नी देव जिमाती थी 
फिर गाय की पहली रोटी ,तब हमको खाना मिलता ,
          सबके बाद ,साथ दादी के, अम्मा  खाना खाती थी 
 फिर रोटी मेहतरानी की, और फिर बर्तन वाली की,
           जो चूल्हे की राखी से ही  ,मांजा  करती  थी बर्तन 
बचे हुए गूंथे आटे  का ,कुत्ते का   बाटा बनता ,
              जिसको बाहर गलियों में जा,कुत्ते को देते थे हम 
रोज सवेरे ,लीप पॉत  कर ,उसको शुद्ध किया  करते,
              और बाद में ही वो चूल्हा , सदा जलाया  जाता था 
आती  नयी बहू जो घर में ,तो उससे सबसे पहले,
               पूजा चूल्हे की करवा ,भोजन पकवाया जाता  था 
 अब तो खूब गैस के चूल्हे ,बिजली ,इंडक्शन चूल्हे ,
                 भुला दिया शहरी संस्कृती ने ,वह  चूल्हा मिटटी वाला 
अब भी मुझे याद आते जब,वो बचपन के दिन प्यारे ,
                आँखों के आगे जल उठता  ,वह  चूल्हा मिटटी वाला            

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर् कविता ! सच मायनॊं मॆ गौर किया जायॆ तॊ पहलॆ का मिट्टी सॆ जुडा इंसान कितना स्वस्थ कितना आज़ाद था और मुश्किलॊं सॆ परॆ था !

    www.allaboutagnihotra.in

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