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गुरुवार, 6 मार्च 2014

पीर विरह की


               पीर विरह की

जबसे मइके चली गयी तुम,छाये जीवन में सन्नाटे
सूनेपन और  तन्हाई में, लम्बी रातें  ,कैसे काटे

पहले भी करवट भरते थे ,अब भी सोते करवट भर भर
उस करवट और इस करवट में ,लेकिन बहुत बड़ा है अंतर
तब करवट हम भरते थे तो,हो जाती थी तुमसे टक्कर
तुम जाने या अनजाने में ,लेती मुझको बाहों में भर
पर अब  खुल्ला खुल्ला बिस्तर ,जितनी चाहो,भरो गुलाटें
दिन कैसे भी कट जाता है  ,लम्बी रातें  कैसे  काटें

ना तो रोज रोज फरमाइश,ना किचकिच ना झगडे ,अनबन
अब खामोशी पसर रही है ,तुम थी तो घर में था  जीवन
अब जब नींद उचट जाती तो,फिर मुंह ढक कर सो जाते है
विरह वेदना है कुछ दिन की,अपने मन को समझाते है
चुप्पी छाई शयनकक्ष में,न तो सांस स्वर,ना खर्राटे
बिस्तर में चुभते है कांटे ,लम्बी रातें ,कैसे काटे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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