पृष्ठ

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

घर की मुर्गी

          घर की  मुर्गी

बिन बीबी के तो एक दिन भी,लगता हमको साल बराबर
फिर भी क्यों कहते बीबी को,घर की  मुर्गी ,दाल बराबर
घर कि मुर्गी अंडे देती ,बीबी देती है सुख प्यारा
सुबह नाश्ता,लंच ,डिनर फिर,करती घर का काम तुम्हारा
और दाल क्या,एक बार जो ,उबल गयी तो छौंक लगा कर
हम खुश होकर ,खा लेते है,रोटी उसके साथ लगा कर
बीबी रोज रोज सुख देती,दाल एक दिन,पक कर,खा कर
फिर भी क्यों कहते बीबी को,घर की  मुर्गी दाल बराबर
भले चना हो,मूंग,उरद या अरहर ,टूट दाल है बनती
मुर्गी से अंडा बनता है,     अंडे से है मुर्गी  बनती
मगर दाल से चना बने ना ,पिसती दाल,बने है बेसन
मुर्गी और दाल में अंतर ,दालें जड़ है ,मुर्गी चेतन
दालें मौन,बोलती बीबी,और खिलाती,माल बनाकर
फिर भी क्यों कहते बीबी को ,घर की  मुर्गी ,दाल बराबर
मुर्गी और दाल कि आपस में तुलना है क्यों की जाती
दाल न खा सकती मुर्गी को,मुर्गी मगर दाल खा जाती
मुर्गी प्रातः करे 'कुकडूँ कूँ ',बीबी बातें करती दिन भर
बीबी होती भारीभरकम ,और दाल होती रत्ती भर
रहे बराबर दिल के बीबी,जीवन को खुश हाल बनाकर
फिर भी क्यों कहते बीबी को,घर की  मुर्गी ,दाल बराबर

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।