पृष्ठ

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मन उच्श्रृंखल

          मन उच्श्रृंखल

इधर उधर भटका करता है ,हर क्षण,हरपल
मन उच्श्रृंखल 
कभी चाँद पर पंहुच ,सोमरस पिया करता
कभी चांदनी साथ किलोलें ,किया करता
करता है अभिसार कभी संध्या के संग में
हो जाता है  लाल , कभी  उषा  के  रंग में
कभी तारिकाओं के संग है मौज मनाता
कभी बांहों में,निशा की,बंध  कर खो जाता
सो जाता है कभी ओढ़ ,रजनी  का आँचल
मन उच्श्रृंखल
कभी किरण के साथ ,टहलने निकला करता
कभी भोर के साथ ,छेड़खानी  है करता
कभी पवन के साथ,मस्त होकर है  बहता
कभी कली के आस पास मंडराता रहता
कभी पुष्प रसपान किया करता ,बन मधुकर
कलरव करता ,कभी पंछियों के संग ,उड़ कर
नहीं किसी के बस में ये दीवाना ,पागल
मन उच्श्रृंखल  
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।