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सोमवार, 19 अगस्त 2013

घन बरसे

               घन बरसे

घन बरसे पर मन ना हरषा
पिया मिलन को रह रह तरसा
घिर घिर बादल रहे घुमड़ते ,
पर मन था सूने  अम्बर सा
    भीगे वृक्ष ,लता सब भीगी
    होकर तृप्त ,धरा सब भीगी
    लेकिन अविरल रही बरसती ,
     मेरी आँखे ,भीगी,भीगी
भीगी मेरी चूनर सारी ,
नीर नयन से इतना बरसा
घन बरसे पर मन ना हरषा
        सावन आया ,बादल आये
        वादा किया ,पिया ना आये
        जितना ज्यादा बरसा पानी,
        उतने  ज्यादा वो याद  आये
बादल गरजे ,बिजली कडकी ,
मन में लगा रहा एक  डर सा
घन बरसे पर मन ना  हरषा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

1 टिप्पणी:

  1. हरिआरी भइ रस मगन , घनघर घन तै घीर ।
    नैना हेरत कहाँ गए , भँवर पंथ के हीर /५२१ /

    भावार्थ : -- हरियाली, गगन के घन से घिर कर रस मग्न हो उठी । अब हरियाली के नयन, भ्रमण पथ के हीरे को ढूँडते हुवे कह रहे हैं कि कहाँ गए सूर्य //

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