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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

नसीब अपना अपना

    
     नसीब  अपना  अपना
समंदर  के  किनारे ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धुप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद पल लहरें,भीगा कर भाग  जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर तड़फडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर ,दिया ये रेत में उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन  कन्याये
तपाने धूप मे,अपना बदन  जब है यहाँ  आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगों को
भला ऐसे में,मै भी रोक ना पाती ,उमंगों को
हसीनो का वो मांसल ,गुदगुदा तन ,पास आता है
वो सुख अद्भुत ,निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही  मिलता ,मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

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