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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

अपनी अपनी किस्मत

       अपनी अपनी किस्मत

समंदर  के   किनारे ,ढेर  सारी  रेत  फैली  थी
लहर से दूर थी कुछ रेत ,जो बिलकुल अकेली थी
कहा मैंने ,अकेली धूप में क्यों बैठ तुम जलती
भिगोयेगी लहर ,उस ज्वार की तुम प्रतीक्षा करती
आयेगी चंद  पल लहरें, भिगा कर  भाग जायेगी
मिलन की याद तुमको देर तक फिर  तडफडायेगी
तुम्हे तुम्हारे धीरज का ,यही मिलता है क्या प्रतिफल
तो फिर हलके से मुस्का कर,दिया ये रेत ने उत्तर
बहुत सी ,गौरवर्णी और उघाड़े बदन महिलायें
तपाने धूप  में अपना बदन ,जब है यहाँ आये
पड़ी निर्वस्त्र रहती ,दबा मुझमे ,अपने अंगो को
भला ,ऐसे में ,मै भी रोक ना पाती उमंगों को
हसीनो का वो मांसल , गुदगुदा तन पास आता है
मज़ा अद्भुत निराला ,सिर्फ मिल मुझको ही पाता है
 चिपट कर उनकी काया से,जो सुख मिलता ,मुझे कुछ पल
लहर से मेरी दूरी का ,यही मिलता मुझे प्रतिफल

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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