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गुरुवार, 4 जुलाई 2013

प्रियतमे कब आओगी


   प्रियतमे कब आओगी 
मेरे दिल को तोड़ कर 
यूं ही अकेला छोड़ कर 
जब से तुम मैके  गई 
चैन सब ले के   गयी 
इस कदर असहाय हूँ 
खुद ही बनाता चाय हूँ 
खाना क्या,क्या नाश्ता 
खाता  पीज़ा,  पास्ता
या फिर मेगी बनाता 
काम अपना चलाता 
रात भी अब ना कटे 
बदलता  हूँ करवटें 
अब तो गर्मी भी गयी 
बारिशें है आ गयी 
कब तलक तड़फाओगी 
प्रियतमे कब  आओगी ? 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मजेदार रचना लगी आपकी :-) बधाई

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  2. विरह की अग्नि से भयंकर अग्नि और दूसरी नहीं..सुंदर प्रस्तुति।।।

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  3. रोचक । जल्दी ही वापिस पायें अपनी प्रियतमा को ।

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  4. बहुत सुन्दर रचना वाह वाह दिल
    खुश कर दिये आप ने

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