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गुरुवार, 27 जून 2013

दास्ताने बुढ़ापा

         
           दास्ताने  बुढ़ापा 
  बस यूं ही बेकार मे और खामखाँ
  रहता हूँ मै मौन ,गुमसुम,परेशां 
  मुश्किलें ही मुश्किलें है हर तरफ,
  बताओ दिन भर अकेला करूँ क्या 
  वक़्त काटे से मेरा कटता नहीं,
  कब तलक अखबार,बैठूँ,चाटता 
   डाक्टर ने खाने पीने पे मेरे ,
    लगा दी है ढेर सी पाबंदियाँ  
   पसंदीदा कुछ भी का सकता नहीं,
    दवाई की गोलियां है  नाश्ता 
    टी.वी, के चेनल बदलता मै रहूँ,
    हाथ मे रिमोट का ले झुनझुना 
   एक जैसे सीरियल,किस्से वही ,
   वही खबरें,हर जगह और हर दफ़ा
   नींद भी आती नहीं है ठीक से ,
    रात भर करवट रहूँ मै बदलता 
   तन बदन मे ,कभी दिल मे दर्द है,
   नहीं थमता ,मुश्किलों का सिलसिला 
   जो लिखा है मुकद्दर मे हो रहा ,
   करूँ किससे शिकवे ,मै किससे गिला
   मन कहीं भी नहीं लगता ,क्या करूँ,
   खफा खुद से रहता हूँ मै गमजदा 
   'घोटू' लानत,उम्र के इस दौर पर,
    बुढ़ापे मे ,ये सभी की दास्ताँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

  

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