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बुधवार, 19 जून 2013

सूरज -दो कविताएँ

         
         सूरज-दो  कविताएँ 
                   1
         सूरज और हम 
होता सूरज लाल,प्रात जब निकला करता 
धीरे धीरे तेज प्रखर हो ऊपर   चढ़ता 
और साँझ,बुझते दीये सा पीला पड़ता 
देखो दिन भर मे वो कितने रंग बदलता 
सुबहो शाम ,उसे ढकने को आते बादल 
पर बादल को चीर ,सदा जाता आगे बढ़ 
उसकी ऊष्मा और ऊर्जा ,कायम रहती है 
सर्दी,गर्मी,बारिश,हर मौसम  रहती  है 
एसा ही होता अक्सर मानव जीवन मे 
बचपन मे है लाली और प्रखर यौवन मे 
और बुढ़ापे मे शीतल ,ढलने लगता  जब 
बादल परेशनियों के ,ढकते है जब ,तब 
सूरज जैसे चीर मुश्किलों को जो बढ़ते 
वो ही अपना नाम जगत मे रोशन करते 
                      2
            सूरज और बादल 
नीर से तुम भरे बादल,और सूरज चमकते हम 
हमारे ही तेज से ,उदधि गर्भ से पैदा  हुये  तुम 
क्षार सारा समंदर का ,छोड़ कर ,निर्मल बदन से 
तुम हवा के साथ ऊपर,उड़े थे स्वच्छंद  मन से 
देख निज मे नीर का ,इतना विपुल धन जब समाया 
तुम्हारे मन मे कलुषता का घना  अँधियार  छाया 
घुमुड़ नभ मे छा गए तुम,लगे गर्वित हो गरजने 
नीर धन ,मद चूर होकर,लगे बिजली से कड़कने 
और सारे गगन मे,स्वच्छंद   होकर तुम विचरने
अहम इतना बढ़ गया कि पिता को ही लगे ढकने 
पर समय और हवा रुख पर,ज़ोर कोई का न चलता 
आज या कल ,समय के संग,है हरेक बादल बरसता
नीर की बौछार बन कर ,समाओगे ,उदधि मे कल 
मै पिता ,फिर प्यार देकर ,उठाऊँगा ,बना बादल 
सृष्टि के आरंभ से ही,प्रकृती का चलता यही क्रम 
नीर से तुम भरे बादल ,और सूरज चमकते  हम 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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