देखा उस दिन उस घर में
शादी का जश्न था;
आँगन था भरा पूरा
हो रहा हल्दी का रस्म था,
ठहाकों कि गूंज थी
हँसी मज़ाक कमाल था,
शमा देखकर खुशियों का
"दीप" भी खुशहाल था |
तभी अचानक नजर उठी
छत पर जाकर अटक गई,
एक काया खड़ी-खड़ी
सब दूर से ही निहार रही,
होठों पे मुस्कान तो थी
नैनों में पर बस दर्द था,
आँखों के कोर नम थे
हृदय में एक आह थी;
बुझी-बुझी सी खड़ी थी वो
बातें उसकी रसहीन थी,
खुशियों के मौसम में भी
वो औरत बस गमगीन थी |
श्वेत वस्त्र में लिपटी हुई
सुने-सुने हाथ थे,
न आभूषण, न मंगल-सूत,
सुनी-सुनी मांग थी,
चेहरे में कोई चमक नहीं
मायूसी मुख-मण्डल में थी;
नजरें तो हर रसम में थी
पर हृदय से एकल में थी |
उस घर की एक सदस्य थी वो,
वो लड़के की भोजाई थी,
था पति जिसका बड़ा दूर गया
बस मौत की खबर आई थी;
दूर वो इतना हो गया था
तारों में वो खो गया था |
घरवालों का हुक्म था उसको
दूर ही रहना, पास न आना,
समाज का उसपे रोक था
सबके बीच नहीं था जाना;
शुभ कार्य में छाया उसकी
पड़ना अस्वीकार था,
शादी जैसे मंगल काम में
ना जाने का अधिकार था |
खुशियाँ मनाना वर्जित था,
रस्मों में उसका निषेध था;
झूठे नियमों में वो बंधी
न जाने क्या वो भेद था;
जुर्म था उसका इतना बस
कि वो औरत एक विधवा थी,
जब था पति वो भाभी थी,
बहू भी थी या चाची थी,
पति नहीं तो कुछ न थी
वो विधवा थी बस विधवा थी |
एक औरत का अस्तित्व क्या बस,
पुरुषों पर ही यूं निर्भर है ?
कभी किसी कि बेटी है,
कभी किसी कि पत्नी है,
कभी किसी बहू है वो,
तो कभी किसी कि माता है;
उसकी अपनी पहचान कहाँ,
वो क्यों अब भी अधीन है ?
इस सभ्य समाज के सभी नियम
औरत को करे पराधीन है;
वो औरत क्यों यूँ लगा-सी थी ?
वो औरत क्यों मजबूर थी ?
उसपर क्यों वो बंदिश थी ?
वो खुद से ही क्यों दूर थी ?
प्रदीप भाई बहुत सुन्दर तरीके से वर्णन दिया है
जवाब देंहटाएंप्रदीप जी, समाज में फैले कुरीतियों का वर्णन आपने अच्छी तरह से किया है ,बधाई.
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