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शनिवार, 8 सितंबर 2012

चाखने की ये उमर है

      चाखने की ये उमर है

देख कर बहला लिया मन,और बस करना सबर  है

नहीं खाने की रही ,बस चाखने की ये उमर   है
मज़े थे जितने उठाने,ले लिये सब जवानी में
अब तो उपसंहार ही  बस,है बचा इस कहानी में
याद आती है पुरानी, गए वो दिन खेलने के
बड़े ही चुभने लगे ये दिन मुसीबत  झेलने के
मचलता तो मन बहुत पर,तन नहीं अब साथ देता
त्रास,पीडायें हज़ारों,  बुढ़ापा दिन    रात         देता
जब भी मौका मिले तो बस, ताकने की ये उमर है
नहीं खाने की रही बस चाखने की ये उमर   है
तना तो अब भी तना है,पड़ गए पर पात पीले
दांत,आँखे,पाँव ,घुटने,पड़  गए सब अंग ढीले
क्या गुजरती है ह्रदय पर,आपको हम क्या बताएं
बुलाती है हमको अंकल कह के जब नवयौवनाएं
सामने पकवान है पर आप खा सकते नहीं है
मन मसोसे सब्र करना,बचा अब शायद यही है
हुस्न को बस  ,कनखियों से,झाँकने की ये उमर है
नहीं खाने की रही बस चाखने  की ये उमर  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

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