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शनिवार, 15 सितंबर 2012

जीवन लेखा

                 जीवन लेखा

जीवन के इस दुर्गम पथ पर,पग पग पर भटकाव लिखा है

कहीं धूप का रूप तपाता, कहीं छाँव  का ठावं   लिखा    है
तड़क भड़क है शहरों वाली,बचपन वाला गाँव लिखा   है
गीत लिखे कोकिल के मीठे, कागा  का भी काँव लिखा है
पासे फेंक  खेलना जुआ  ,हार जीत का दाव लिखा  है
कहीं किसी से झगडा,टंटा ,कहीं प्रेम का भाव लिखा है
 अच्छे बुरे  कई लोगों से,जीवन भर टकराव लिखा है
प्रीत परायों ने पुरसी है,अपनों से   अलगाव   लिखा है
लिखी जवानी में उच्श्रन्खलता ,वृद्ध हुए ,ठहराव  लिखा है
वाह रे ऊपरवाले  तूने,जीवन भर   उलझाव लिखा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

1 टिप्पणी:

  1. जीवन का नाम ही उलझन है..
    एक से पीछा छुटा नहीं की दूसरी उलझन तैयार खड़ी रहती है...

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