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शनिवार, 28 अप्रैल 2012

बेगुनाह की इक आह से तू बर्बाद हो सकता है

जुर्म करने वाले न भूल जाना जुर्म करके 
के आसमाँ तेरे हर जुर्म पे नजर रखता है |

खुद पे गुमां करने से पहले ये सोच लेना 
के तुझे भी आगोश-ए-मौत में सिमटना है |

ए इन्सान ना कर इतना फरेब इंसानों से 
के इंसानियत ने तुझसे भी हिसाब लेना है |

दिल्लगी किसी से इतनी भी ना करो दोस्त 
के तेरी दिल्लगी से कोई तबाह हो सकता है |

ये दिल भी इक बहते समंदर की माफिक है 
के दर्द-औ-खुशियों का इसमें संगम होता है |

बेगुनाह को गुनहगार साबित ना कर "अमोल"
के बेगुनाह की इक आह से तू बर्बाद हो सकता है |

1 टिप्पणी:

  1. आपकी कविता पढ़कर याद आया की"मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या"| शानदार ,बधाई|

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