पृष्ठ

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

छा रहा इस देश पर कोहरा घना है

दिख हर आदमी कुछ अनमना है
छा रहा इस देश पर कोहरा घना है
व्यवस्थाएं देश की बिगड़ी पड़ी है
जिधर देखो,गड़बड़ी ही गड़बड़ी है
लूट कर के देश नेता भर रहे घर
बेईमानी और रिश्वत को लगे  पर
कोष का हर द्वार चाटा  दीमकों ने
नींव कुरदी,देश की कुछ मूषकों ने
दीवारें इस दुर्ग की पोली पड़ी है
कभी भी गिर पड़ेगी,ऐसे  खड़ी है
लग गया घुन बेईमानी का सभी को
देश सारा खोखला सा है तभी तो
हो गए हालात कुछ ऐसे बदलते
रत्न गर्भा धरा से  पत्थर निकलते
स्वर्ण चिड़िया कहाता था देश मेरे
कर लिया है उल्लूओं ने अब बसेरा
ढक लिया है सूर्य को कुछ बादलों ने
बहुत दल दल दिया फैला कुछ दलों ने
समझ ना आये हुई क्या गड़बड़ी है
लहलहाती फसल थी,उजड़ी पड़ी है
परेशां हर आदमी आता नज़र है
हो रहे इलाज सारे बेअसर  है
पतंगों की तरह बढ़ते दाम हर दिन
और सांसत में फसी है जान हर दिन
हो रहे निर्लिप्त सब इस खेल में है
थे कभी राजा,गए अब जेल में है
दिख रहा ईमान अब दम तोड़ता है
साधने को स्वार्थ हर एक दोड़ता है
त्रसित हर जन,कुलबुलाहट हो रही है
क्रांति  की अब सुगबुगाहट  हो रही है
देश ऐसी स्तिथि में आ खड़ा है
धुवाँ सा है,आग पर पर्दा   पड़ा  है
और भीतर से सुलगता  हर जना है
छा रहा इस देश पर कोहरा  घना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

1 टिप्पणी:

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।