पृष्ठ

रविवार, 20 नवंबर 2011

बढ रही है बड़ी ठिठुरन-रूमानी हो जाए हम तुम

बढ रही है बड़ी ठिठुरन-रूमानी हो जाए हम तुम
--------------------------------------------------------
सर्दियों  की इस सुबह में,बढ़ रही है बड़ी ठिठुरन
दुबक कर के ,रजाई में,चाय की लें ,चुस्कियां हम
शीत का है सर्द मौसम,और उस पर  घना कोहरा
और फिर ठंडी हवाएं, हो रहा है सितम दोहरा
नहीं सूरज   नज़र आता ,देख ये आलम जमीं पर
ओढ़ चादर कोहरे की,छुप गया है वो कहीं पर
देख  मौसम की रवानी,हो गया उद्दंड  पानी
रचाने को रास मिल कर,हवाओं संग,हो रूमानी
सूक्ष्म बूंदों में विभक्षित हो गया घुल मिल हवा से
और सूरज को छुपाया, देख ना ले,वो वहां से
छा रहा इतना धुंधलका,आज पंछी कम उड़े  है
देख मौसम की नजाकत,नीड़ में दुबके पड़े है
और तुम पीछे पड़ी हो,उठो,अब छोडो  रजाई
और तुम अंगड़ाई लेकर,भर रही हो ,तुम जम्हाई
आओ ना,शरमाओ ना तुम,हो गयी जो सुबह तो क्या
प्यार का है मधुर मौसम,चैन से लो,मज़ा इसका
'अजी छोडो,बुढ़ापे में,चढ़ रही मस्ती तुम्हे है
काम वाली भी अभी तक आई ना ,बर्तन पड़े है
मुझे चिंता काम की है ,और रूमानी हो रहे तुम'
सर्दियों की इस सुबह में,बढ़ रही है ,बहुत ठिठुरन

मदन मोहन बहेती'घोटू'

1 टिप्पणी:

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।